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________________ नियमित उत्तम भोजन मिलता। मुखवास के लिए उत्तम सामग्री आती। जो मांगती वह उसे मिल जाता। प्रतिदिन वस्त्र धुलकर आ जाते । यदा-कदा नये वस्त्र भी मिल जाते। प्रति मास विक्रम की विश्वस्त दासियां अपने क्रम से वहां रहतीं। उनमें सुमित्रा और नन्दा ने मनमोहिनी.की हिम्मत देखकर दांतों तले अंगुली दबा ली थी। सुमित्रा मनमोहिनी के प्रति अत्यधिक आकर्षित बनी थी। उसके मन मेंमोहिनी के प्रति सहज समभाव था। वह कभी-कभी मनमोहिनी के प्रति संवेदना व्यक्त करने के लिए भी उससे बातचीत कर लेती थी। एक दिन मनमोहिनी ने अपने अलंकारों में से स्वर्ण की एक माला निकालकर सुमित्रा को देते हुए कहा- 'मां! मैं यह तुम्हें भेंट दे रही हूं। इसे स्वीकार कर लेना। मेरामन मत तोड़ना।' सुमित्रा ने उसे सहर्ष स्वीकार कर लिया। धीरे-धीरे दोनों में मां-बेटी का-सा संबंध हो गया। सुमित्रा के मन में मनमोहिनी के प्रति अपार उदार भाव प्रकट होने लगे। वह उसके दु:ख को अपना दु:ख मानने लगी। __मनमोहिनी ने एक योजना तैयार की और उसे अंजन, कुंकुम और शलाका के योग से ताड़पत्र पर लिखा। दो दिन बाद जब सुमित्रा भोजन देने आयी तब मनमोहिनी ने कहा- 'सुमित्रा! दो दिन बाद मेरे पिताश्री का जन्मदिन है। प्रतिवर्ष मैं इसे मनाती रही हूं। मैं उनकी इकलौती बेटी हूं। कल वे मुझे भवन में न देखकर अत्यन्त दु:खी होंगे। मैं प्रतिवर्ष उनको पान का बीड़ा देती रही हूं। आज मैं विवश हूं....' __'देवी! आप चिन्ता न करें, मैं पान दे आऊंगी। आप पूरा नाम-ठिकाना बताएं।' ..'मां! मैं धन्य हुई, किन्तुनहीं....यह काम मैं नहीं सौंप सकती।' मनमोहिनी ने भावभरे स्वरों में कहा। 'क्यों देवी?' 'तुम एक शर्त स्वीकार करो तो मैं कह सकती हूं।' 'बोलो।' 'मेरे माता-पिता यदि मेरे विषय में कुछ पूछे तो यही कहना है कि तुम्हारी पुत्री राजभवन में आनन्द से है। उसे तनिक भी कष्ट नहीं है। यदि तुम इस कारागार के जीवन का आभास भी करा दोगी तो संभव है वे प्राणत्याग कर दें।' 'देवी ! मैं इसकी भनक भी नहीं होने दूंगी।' वीर विक्रमादित्य ४०३
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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