________________
'यह कोई कारागार प्रतीत होता है।'
'तेरा अनुमान सही है, किन्तु तेरे लिए यह कारागार नहीं, कर्त्तव्यागार है। तेरी सुविधा के लिए यहां सारी सामग्री पड़ी है। मेरी एक विश्वस्त दासी सुमित्रा दिन-रात यहीं बाहर के निवासगृह में रहेगी। एक महीने के पश्चात् इसके स्थान पर दूसरी दासी आ जाएगी। यह क्रम चलता रहेगा। दासी तेरे भोजन की पूरी व्यवस्था करेगी। बाहर से ही भोजन-पानी आदि तेरे पास पहुंचाया जाएगा । मैंने पूरी व्यवस्था कर दी है।'
'मैं धन्य हुई, किन्तु इस कारावास में मुझे करना क्या है?'
'पुत्री! वही मैं अब बता रहा हूं। तूने अपने पति को देखा नहीं और युवराज को भी ज्ञात नहीं है कि तेरे साथ उसका विवाह हुआ है। अब तुझे एक कार्य करना है, जिससे यह सिद्ध हो सके कि विक्रमचरित्र से भी स्त्रीचरित्र महान् है।'
'आज्ञा करें।'
'तू इस कारागार से तभी मुक्त हो सकेगी जब तेरी गोद में मेरा पौत्र किलकारियां भरेगा।' विक्रम ने कहा।
'महाराज....'
'पुत्री ! इस संघर्ष से भय लगता हो तो मैं तुझे अभी भी राजभवन में ले जाने के लिए तैयार हूं।'
'नहीं, पिताजी!.....आपकी चुनौती को एक आर्य नारी ने स्वीकारा है। नारी संघर्ष में निर्भय होती है।' मनमोहिनी ने तेजस्वी स्वरों में कहा और महाराजा को नमन किया।
वीर विक्रम मनमोहिनी के मस्तक पर हाथ रखकर वहां से विदा हो गए। उन्होंने स्वयं खंड का द्वार बाहर से बंद कर ताला लगा दिया और चाबियां साथ लेकर, सुमित्रा को सूचित कर, राजभवन की ओर चल पड़े।
जिसके हृदय में अनेक आशाएं अठखेलियां कर रही थीं, चित्त में यौवन के परिप्रेक्ष्य में अनेक कल्पनाएं नाच रही थीं और भावी जीवन की अनन्त कविताएं जिसने अपने मन में रच रखी थीं, वह मनमोहिनी एक ऐसे कारागार में पड़ी थी, जहां से छुटकारा मिलना अशक्य था।
करोड़पति मां-बाप की वह लाडली वीर विक्रम से टक्कर लेने का निर्णय कर उस भूगृह के एक कोने में पड़ी थी।
एक ओर राजहठ! दूसरी ओर स्त्रीहठ! दिन बीतते-बीतते महीने बीत गए।
४०२ वीर विक्रमादित्य