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'चालीस से नब्बे दिन तक।' 'बाप रे!.....इतना कठोर व्रत किसलिए?' 'आत्म-कल्याण के लिए.... सुमित्रा के मन में मनमोहिनी के प्रति श्रद्धा गाढ़ हो गई।
उसी दिन मध्यरात्रि में सुभद्रा को साथ लेकर देवचन्द्र वहां आ पहुंचा। मनमोहिनी ने सुभद्रा को सारी बात समझा दी कि उसे पूर्ण मौन रहना है और जो कुछ जरूरत हो उसे एक ताड़पत्र पर लिखकर दासी को दे देना है। फिर उसे भोजन, पानी, शौच आदि की व्यवस्था के विषय में सारी जानकारी देकर बोली- 'सखी, तुझे भय तो नहीं लगेगा?' ___'आप यह क्या कह रही हैं ? राजा को तो बोधपाठ देना ही चाहिए।' सुभद्रा ने कहा।
'मैं कभी-कभी तुझसे मिलने के लिए आऊंगी'-कहकर मनमोहिनी समवयस्क सखी समान दासी सुभद्रा के गले मिली और चाचा देवचन्द्र के साथ भूगर्भ-मार्ग से चल पड़ी।
सुभद्रा ने सुरंग का ढक्कन बन्द किया और मनमोहिनी के निर्देशानुसार अपने वस्त्रालंकार खोलकर मनमोहिनी के वस्त्रालंकार धारण कर लिये।
मनमोहिनी की एक योजना सफल हुई और वह मुक्ति के प्रकाश में आ गई।
घर आकर वह माता-पिता से मिली। माता ने उसे हृदय से लगा लिया और पिता भी उसे देखकर गद्गद हो गए।
कुछ बातचीत कर मनमोहिनी बोली-'पिताश्री! मैं इस भवन में रहूंगी तो दास-दासी मुझे पहचान लेंगे। पास में अपना एक खाली भवन पड़ा है न!'
'हां!'
'उसको कल ही ठीक-ठाक करवा दें। मेरी विश्वस्त दो दासियों को वहां भेज दें। मैं एक योगिनी का वेश धारण कर वहां रहूंगी।'
'योगिनी का वेश?' 'हां! मुझे विजय प्राप्त करनी है। महाराजा को सही दृष्टि देनी है।' 'पिताजी ! युवराजश्री यहीं हैं या प्रवास में हैं ?' 'यहां आ गए हैं, ऐसा मैंने सुना है।' सेठ सुदंत बोला। 'अच्छा.....मेरा काम हो जाएगा।' मनमोहिनी ने कहा।
दूसरे दिन मनमोहिनी योगिनी का वेश बनाकर पास वाले मकान में चली गई।
और सायं वह रजस्वला हुई, इसलिए तीन दिन तक एक ही कमरे में रहना आवश्यक हो गया।
४०६ वीर विक्रमादित्य