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________________ 'नहीं, महाराज! आर्य नारी जीवन में एक ही बार विवाह - सूत्र में बंधती है। आप हजार वर्ष तक जीवित रहें, पर क्रूर काल पर विश्वास नहीं किया जा सकता।' किया । 'युवराज की मुद्रा मैं तुझे दूंगा।' ‘अच्छा' कहकर मनमोहिनी खड़ी हुई और महाराजा को भावपूर्वक नमन वीर विक्रम ने मनमोहिनी के मस्तक पर हाथ रखा। पिता-पुत्री विदा हुए। घर पहुंचकर सुदंत ने सारा वृत्तान्त सेठानी से कहा। सेठानी असमंजस में पड़ गई। मां को चिन्तित देखकर मनमोहिनी बोली- 'मां! आप चिन्ता न करें । वीर विक्रम मेरी परीक्षा करना चाहते हैं, किन्तु वे नहीं जानते कि कंचन भयंकर अग्नि में जलकर भी अपनी तेजस्विता को नहीं छोड़ता । कदाचित् अग्नि में जलकर कंचन राख बन जाता है पर उस राख में भी उसकी तेजस्विता विराजमान रहती है। आप किसी भी प्रकार की शंका न करें ।' दूसरे दिन संध्याकाल में राजपुरोहित और महाप्रतिहार अजय युवराज के खड्ग के साथ सुदंत के घर आ पहुंचे। उस समय दास-दासियों को अन्यत्र भेज देने के कारण भवन सूना था। सेठ, सेठानी और मनमोहिनी के अतिरिक्त वहां कोई नहीं था । सेठ-सेठानी ने खड्ग का स्वागत किया। उसे असली मोतियों से वर्धापित किया और गोधूलि -वेला में लग्नविधि सम्पन्न हुई। लग्नविधि सम्पन्न होते ही महाप्रतिहार अजय ने युवराज की मुद्रिका देवी मनमोहिनी के हाथ में देते हुए कहा- 'महाराज ने यह भेंट-स्वरूप भेजा है। अब आप तैयार हो जाएं, राजभवन चलने के लिए । ' मनमोहिनी ने वह मुद्रिका मां को सौंपते हुए कहा- 'मां ! इस मुद्रिका को आप अत्यन्त सुरक्षित रखना। आवश्यकता पड़ेगी तो मैं मंगा लूंगी।' माता-पिता ने रोते हृदय से पुत्री को विदाई दी। मनमोहिनी का रथ राजभवन में आ पहुंचा। राजपुरोहित और मनमोहिनी अपने खड्ग के साथ रथ से नीचे उतरे। महाप्रतिहार खड्ग सहित युवराज्ञी को लेकर महाराजा विक्रमादित्य के मुख्य खंड में गया। वीर विक्रम वहीं बैठे थे। अपनी पुत्रवधू को आती देखकर वे खड़े हो गए। ४०० वीर विक्रमादित्य
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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