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________________ 'मैं उसको हर्षपूर्वक स्वीकार करूंगी और युवराजश्री की बुद्धि को कसौटी पर कसकर उसे पराजित करूंगी।' मनमोहिनी ने गर्व के साथ कहा।। राजा वीर विक्रम हंस पड़े। फिर सुदंत सेठ की ओर मुड़कर बोले-'सेठजी, मैं आपकी सुकन्या को अपनी पुत्रवधू बनाना चाहता हूं।' 'कृपानाथ.... 'मैं सच कहता हूं। अभी युवराज यहां नहीं हैं, किन्तु क्षत्रियों के रीतिरिवाज के अनुसार कल मैं गोधूलि-वेला में आपकी पुत्री के साथ लग्न करने के लिए युवराजश्री का खड्ग भेजूंगा।' 'कल ही!' 'हां, सेठजी! कल ही। आपकी कन्या रूप, गुण और बुद्धि में अपूर्व हैं। मुझे विश्वास है कि आपकी पुत्री मनमोहिनी अपनी बात प्रमाणित करेगी तो वह मालवदेश की युवराज्ञी बन सकेगी।' सुदंत विचारमग्न हो गया। मनमोहिनी ने विक्रम के मन को समझ लिया था। वह बोली- 'महाराज! मैं तैयार हूं। नर-नारी के सनातन संघर्ष में नारी की ही विजय होती है, यह मैं प्रमाणित कर दूंगी।' 'बेटी! आवेश में कोई कदम मत बढ़ाना। युवराज्ञी पद सहज नहीं है।' 'युवराज्ञी पद के लिए मैं संघर्ष करना नहीं चाहती।' 'तो....?' 'आपका विचार अयथार्थ है, यह प्रमाणित करने के लिए।' 'अच्छा', विक्रम ने कहा। फिर सुदंत सेठ की ओर देखकर बोले-'सेठजी! आपने क्या सोचा है?' 'आपकी भावना का मैं सत्कार करता हूं।' सेठ ने कहा। 'तो कल संध्या की वेला में लग्न की विधि पूरी हो जानी चाहिए। आपके और मेरे सिवाय किसी को इसका पता न लगे। मेरा एक विश्वासपात्र व्यक्ति युवराज का खड्ग लेकर आएगा। आपके भवन में गुप्त रूप से लग्नविधि सम्पन्न होगी। राजपुरोहित स्वयं लग्नविधि को सम्पन्न करने आएंगे। विवाह होने पर आपकी कन्या खड्ग के साथ रथ में बैठकर यहां आएगी। मैं अपनी पुत्रवधू को आशीर्वाद दूंगा और उसको एक ऐसा कार्य सौंपूंगा कि जिससे जय-पराजय का निर्णय हो सके।' सुदंत ने पत्री की ओर देखा। कन्या बोली-'यह मुझे स्वीकार है। मुझे कोई आपत्ति नहीं है। किन्तु मैं युवराजश्री की परिणीता हूं, इसका प्रमाण....।' 'पुत्री ! प्रमाण मैं स्वयं ही हूं।' वीर विक्रमादित्य ३६६
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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