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________________ दोनों के मुंह काले थे । चपला अत्यन्त निराशा का अनुभव कर रही थी । जयसेन मंदिर में चारों ओर देखकर बोला- 'देवी! आपको इस अपमान का सामना करना पड़ा, इसका जिम्मेवार मैं ही हूं। योगी को देखते ही मैं जागरूक नहीं रह सका ।' ‘प्रिय ! आपका दोष नहीं है। दोष मेरा ही है। मैंने उसे सचमुच योगी मान लिया था। यदि हम पहले ही योगी को..... खैर ! लुटने के पश्चात् बुद्धिमानी की हांकना व्यर्थ है । ' कुछ समय पश्चात् दोनों वहां से चल पड़े। दोनों के कंधों पर काली चादर रखी हुई थी। उससे दोनों ने अपना-अपना मुंह पोंछने का प्रयत्न किया, किन्तु व्यर्थ। किसी वनस्पति के रस के साथ काली स्याही मिलाकर चुपड़ी गई थी, इसलिए वह चमड़ी के साथ एकमेक हो गई थी। जयसेन बोला – ‘देवी ! रास्ते में कोई जलाशय आयेगा ?' 'हां, मुख्य रास्ते पर एक बावड़ी है। क्यों पूछते हैं ?' 'ऐसे काले मुंह लेकर हम नगर में कैसे जाएंगे ?' 'कुमार ! पहली नजर में ही मनुष्य को परखने वाली मैं पछाड़ खा गई, वहां काले मुंह की चिन्ता ही क्या है ?' दोनों मुख्य रास्ते पर आ गए। दोनों अश्व वहीं खड़े थे। चपलसेना और जयसेन दोनों अश्वों पर बैठकर नगरी की ओर चल पड़े। रास्ते में बावड़ी आयी। दोनों वहां उतरे और मुंह की कालिमा को दूर करने का प्रयत्न करने लगे। बहुत श्रम करने के पश्चात् भी वे सारी कालिका नहीं धो सके। फिर दोनों घोड़ों पर आरूढ़ होकर भवन की ओर चल पड़े । जब वे भवन पर आए तब नगररक्षक उनकी प्रतीक्षा में वहीं बैठा था। दोनों को देखकर वह आश्चर्यचकित रह गया । जयसेन ने चोर की चालाकी की बात बताई । पूरी बात सुनने के पश्चात् नगररक्षक बोला- 'इतना अच्छा अवसर मिला और आपने मुझे सूचना नहीं दी। लगता है, वह योगी ही चोर था। अच्छा देवी! उस चोर की उम्र का कुछ अनुमान है ?' ‘हां, वह लगभग तीस-पैंतीस वर्ष का होना चाहिए। मैं पूरा अनुमान करूं उससे पूर्व ही उसने मेरे मुंह पर भभूत डाली और फिर क्या हुआ, मैं नहीं जानती ।' इतने में ही जयसेन बोला- 'नगररक्षकजी ! ज्यों ही देवी जमीन पर लुढ़कने लगीं, मैंने अपनी तलवार निकालने का प्रयत्न किया। पर उस दुष्ट योगी ने मेरे पर भूत डाली। दो क्षण तक मन में आकुलता रही और फिर मैं भी बेहोश हो गया। ३७४ वीर विक्रमादित्य
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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