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फिर सूर्योदय के समय देवी ने मुझे झकझोरकर उठाया और तब हमने देखा कि दोनों के मुंह पर कालिख पुती हुई है।'
नगररक्षक बोला-'निराश होने की कोई बात नहीं है। आज आठवां दिन है। संभव है आज चोर यहां आ जाए।'
नगररक्षक वहां से विदा हुआ।
मध्याह्न तक समूची नगरी में यह बात फैल गई कि चालाक चोर ने किस प्रकार चपलसेना के मुंह पर तमाचा मारा है।।
अब क्या करना है-यह प्रश्न उभरकर सामने आ गया।
चपला निराशा के सागर में समा गई। मनुष्य के चित्त में जब निराशा जन्म लेती है तब वह टूट जाता है। चपलसेना पूर्ण रूप से टूट चुकी थी।
आज अंतिम दिन था। भोजन से निवृत्त होकर चपला अपने शयनकक्ष में शय्या पर सो गई।
जयसेन उससे मिलने दो बार गया, पर वह मिली नहीं, वह सो रही थी। अन्त में जयसेन ने एक पत्र लिखकर परिचारिका को देते हुए कहा-'तुम यह पत्र देवी को दे देना। मैं नगरी में घूमकर शीघ्र आ जाऊंगा।'
__ परिचारिका ने पत्र ले लिया। देवी अभी तक सो रही थीं। संध्या हो चुकी थी। परिचारिका देवी के खंड में दीपमाला प्रज्वलित करने के लिए गई। उसने दीपजलाए। इतने में ही देवी ने आंखें खोली और कहा-'अरे, संध्या बीत गयी?'
'देवी ! आज आपको गहरी नींद आ गयी। नगररक्षक आपसे मिलने आए पर आपको निद्राधीन जानकर चले गए। युवराजश्री दो बार आए थे और अभीअभी एक पत्र देकर नगरी में घूमने गए हैं।'
'पत्र?'
'हां' कहती हुई परिचारिका ने अपने उत्तरीय से बंधे हुए पत्र को चपलसेना के समक्ष प्रस्तुत किया।
चपला ने अधीरता से पत्र खोला-उसमें लिखा था
'देवी चपलसेना! मेरे कारण आपको बहुत अपमानित होना पड़ा है। मैं प्रत्यक्षत: आपसे क्षमा-याचना करता, पर आपको नींद में उठाना मैंने उचित नहीं समझा, इसलिए पत्र लिखना पड़ा है। मैं आज पूरी रात चोर की टोह में घूमता रहूंगा और उसे पकड़कर ही सांस लूंगा। मैं अपना दु:ख भुलाने के लिए आपके यहां आया, पर आपको दु:खी कर डाला । यदि मैं आज अपने प्रयत्न में सफल रहा तो आपसे साक्षात्कार करने शीघ्र आ पहुंचूंगा, अन्यथा मैं अपना मुंह आपको नहीं दिखाऊंगा।
आपका- 'जयसेन'
वीर विक्रमादित्य ३७५