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'अच्छा-अच्छा' कहकर योगी ने भभूत की एक चुटकी चपलसेना के मुंह पर छिड़कते हुए कहा-'कल रात के तीसरे प्रहर में वह चोर तुम्हारी पकड़ में आ जाएगा।'
पर यह क्या? चपलसेना को एक छींक आयी और वह बेहोश होकर जमीन पर लुढ़क गयी।
जयसेन ने उसको व्यवस्थित सुला दिया, फिर योगी की ओर देखकर कहा- 'वाह, तुम्हारा अभिनय कमाल का रहा। अब तुम शीघ्र ही तैयार हो जाओ।'
'इसका क्या करेंगे?' 'मैं सब कुछ कर लूंगा।' जयसेन बोला।
फिर उसने सोचा, चपला का धन-भंडार न सही, इसके आभूषणों की चोरी तो कर ही लेनी चाहिए। यह सोचकर उसने चपलसेना के शरीर के सारे आभूषण उतारकर पास में एक गढ़े में छिपाकर, पहचान के लिए एक पत्थर रख दिया। फिर उसने उस योगी-रूपी व्यक्ति से कहा-'देखो, पहले मेरे मुंह पर कालिमा लगा दो और फिर चपला का मुंह भी काला कर देना।'
उसने जयसेन और मूर्च्छित चपलसेना के गौरवदन को काला कर दिया। फिर कमंडलु के पानी से जलते लक्कड़ को बुझाया और बनावटी वेश उतारकर मूलवेश धारण कर लिया। जयसेन ने योगी बने हुए उस व्यक्ति को दस स्वर्णमुद्राएं और देकर भाग जाने के लिए कहा । वह हंसते-हंसते चला गया।
जयसेन वहीं सो गया। ठंडी हवा के झोंको से उसे गहरी नींद आ गई।
प्रात:काल प्रारम्भ हो चुका था। चपलसेना ने नयन खोलने का प्रयत्न किया। पर वह सफल नहीं हुई।।
सूर्योदय हुआ।
चपलसेना ने आंखें टिमटिमाईं। उसने चारों ओर देखा । युवराज को पास में सोये देखकर वह तत्काल उठ बैठी। युवराज का मुंह काला स्याह बन चुका था। वह बोली- 'अरे, यह क्या? मेरे सारे अलंकार कहां गए? ओह ! वह योगी नहीं, चालाक चोर ही था।' ____ उसने जयसेन को झकझोर कर उठाया। आंखें मलता हुआ जयसेन उठा और चपलसेना को देखते ही बोला-'अरे! यह क्या?'
'कुमार! वह योगी ही चोर था। मेरे सारे अलंकार लेकर भाग गया। तुम्हारा चेहरा तो....'
'अरे! उस चालाक चोर ने आपका मुंह भी काला कर डाला। हम बुरे फंसे....' कहकर जयसेन बैठ गया।
वीर विक्रमादित्य ३७३