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चपलसेना ने चारों ओर देखकर कहा- 'नहीं, हम सही मार्ग पर चल रहे हैं।'
जयसेन ने यह मार्ग पहले ही देख लिया था। उसने एक नौजवान व्यक्ति को योगी बनाकर कालभैरव के मंदिर में बैठने के लिए प्रोत्साहित किया था। उसको जयसेन ने दस स्वर्णमुद्राएं दी थीं और क्या करना है, यह भी समझा दिया था।
ओह ! धन का प्रलोभन....!
कुछ दूर चलनेपर उल्लास भरे स्वरों में चपला बोल उठी-'ओह ! सामने जो दिख रहा है, वह है कालभैरव का मंदिर।'
'तब तो हमें सावधानीपूर्वक चलना चाहिए। द्वार में कुछ प्रकाश-सा दिख रहा है। संभव है योगी की धूनी जल रही हो।'
चपलसेना मौन रही। दोनों स्थिरभाव से मंदिर की ओर बढ़ रहे थे। मंदिर के निकट जाते ही जयसेन ने संकेत से बताया कि अब मौन रहना है और पीछेपीछे आना है।
चपलसेना बहुत चालाक थी, पर थी तो एक नारी ही। उसके हृदय की धड़कन बढ़ चुकी थी। उसने जयसेन का हाथ छोड़ा नहीं।
जयसेन ने मंदिर के सामने देखा। योगी आंखें बंद कर बैठा था। उसके सामने दो लक्कड़ जल रहे थे।
जयसेन ने भाव भरे स्वरों में बोला- 'योगीराज की जय हो।'
योगीराज ने गंभीर वाणी में कहा- 'बच्चा! औरत को साथ लेकर क्यों आया है?'
'योगीराज! हम दोनों आपके दर्शन करने आए हैं। हम पर कृपा करें।' 'बैठ जाओ।' योगी ने कहा। जयसेन और चपलसेना-दोनों बैठ गए।
योगीराज ने नेत्र खोलकर दोनों की ओर देखते हुए कहा - 'बहन! मैंने तुम्हारे मन की बात जान ली है। तुम जिस चोर के पीछे पड़ी हो, वह चोर मांत्रिक है।'
'योगीराज ! आप तो मन की बात जान सकते हैं। आप कृपा कर मुझे ऐसा उपाय बताएं कि मैं उस चोर को पकड़ सकुँ ।' चपला ने कहा।
योगी नेत्र बंद कर, कुछ क्षण मौन रहने के पश्चात् बोला- 'बहन! तुम्हारी मनोकामना भैरवनाथ पूरी करेंगे। साथ में यह लड़का कौन है?'
'मेरे प्रियतम हैं।' ३७२ वीर विक्रमादित्य