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________________ भोजन का समय हो चुका था । चपला की दो परिचारिकाएं दो थाल लेकर वहां आ पहुंची। जयसेन और चपला ने हाथ-मुंह धोकर भोजन प्रारम्भ किया । भोजन से पूर्व चपलसेना को मैरेयपान की आदत थी.... फिर वह दूसरे प्रहर के अंत में भी एक बार मैरेयपान करती थी । देवकुमार मांसाहार, मैरेयपान आदि से परहेज रखता था। उसमें मां के संस्कार थे । उसने इन मादक वस्तुओं का सेवन न करने की प्रतिज्ञा ले रखी थी । मैरेय का पात्र भरते - भरते चपला बोली- 'प्रियेश ! आज तो पान करें... ।' 'नहीं, देवी! आप तो जानती ही हैं कि मैं मैरेयपान नहीं करता ।' जयसेन बोला । 'प्रिया और प्रियतम का जब मिलन होता है तब मैरेय की मस्ती से दूसरा ही रंग खिलता है । ' चपला ने चंचल होते हुए कह डाला । 'देवी! आप क्षमा करें। मैंने माता को चरण-स्पर्श कर मदिरा और मांस का त्याग किया है। दूसरी बात यह है कि मुझे अभी तक प्रिया और प्रियतम के पागलपन का अनुभव भी नहीं है। आप तो मेरे जीवन की दर्द - कथा जानती ही हैं । ' 'इसीलिए तो मैं आग्रह कर रही हूं। यह सामान्य मदिरा नहीं है, उच्च कोटि का मैरेय है। मैरेयपान से दिल का दर्द गायब हो जाता है और स्वास्थ्य भी सुधरता है।' चपलसेना आग्रह करती रही । 'देवी ! कोई भी नारी, फिर चाहे वह माता हो, भगिनी हो या प्रियतमा हो, वह अपने प्रिय से ऐसा आग्रह कभी नहीं करती। आग कितनी ही कोमल हो, पर वह आग ही है ।' चपलसेना हंस पड़ी और हंसते-हंसते मैरेयपान करने लगी। उसने सोचा, अधिक खींचने से टूटने का भय रहता है। एक बार जब नौजवान को रूप और यौवन का स्वाद आएगा, तब वह स्वयं ही मैरेय का पिपासु बन जाएगा। एक घटिका में भोजन-कार्य सम्पन्न हो गया। रात्रि के प्रथम प्रहर के पूरे होने की घंटी बज उठी। जयसेन रूपी देवकुमार हाथ धोते-धोते बोला- 'देवी ! अब हमें उस योगी से मिलने की तैयारी करनी चाहिए। आप आज्ञा दें तो मैं अकेला ही वहां हो आऊं ।' नहीं, मैं भी साथ चलूंगी।' चपला ने कहा । ‘तो हमें अब चलना चाहिए।' जयसेन बोला। 'अभी तो दूसरा प्रहर प्रारम्भ ही हुआ है।' 'स्त्रियों को तैयार होने में विलम्ब हो ही जाता है।' वीर विक्रमादित्य ३६६
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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