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________________ मुख्य परिचारिका माधवी ने कहा- 'देवी! युवराजश्री अभी तक नहीं लौटे हैं। विलम्ब का कारण ज्ञात नहीं है।' 'मधु! तू जा और उनकी खोज कर।' 'जी' कहकर मधु तत्काल खंड के बाहर आ गई। रात्रि का पहला प्रहर बीत गया। उसी समय जयसेन कक्ष में प्रवेश कर देवी चपलसेना से बोला-'देवी! कुछ विलम्ब अवश्य हुआ, पर एक महत्त्वपूर्ण बात हस्तगत हुई।' 'अच्छा !' 'देवी! एक पानागार के पास चार मद्यपी बैठे थे। वे परस्पर बातचीत कर रहे थे। बात-ही-बात में एक व्यक्ति ने अपने साथी से पूछा-'अरे! तू कह रहा था कि एक योगी आया है?' 'हां, किन्तु संध्या के पश्चात् वह किसी से नहीं मिलता। आज प्रात:काल ही वह आया है। वह चामत्कारिक है। मैं गया था। उसको प्रणाम किया। उसने मेरे हाथ में भभूत डाली और मैंने आश्चर्य के साथ देखा कि वह भभूत पांच स्वर्ण मुद्राओं में बदल गई।' तीसरा बोला-'अरे! वह कहां ठहरा हुआ है?' चौथे ने उसका स्थल बताया। देवकुमार ने चपला से कहा-'यह सारी बात मैंने छिपकर सुनी।' 'क्या आपने स्थल जान लिया?' चपला ने पूछा। 'मैं तो सर्वथा अपरिचित हूं। उसने मुझे 'गंध्रपी श्मशान' की बात कही थी।' जयसेन ने कहा। 'हां, अवंती का यह प्रसिद्ध चामत्कारिक श्मशान है।' चपला बोली। 'वहां कोई भैरव का मन्दिर है ?' जयसेन ने पूछा। 'हां, वहां काल-भैरव का मंदिर है, किन्तु वह बहुत भयंकर है। वहां कोई आ-जा नहीं सकता।' चपला ने कहा। जयसेन तत्काल बोला- 'तब तो देवी ! वह योगी और कोई नहीं, अवश्य ही चोर होना चाहिए....वह पांच स्वर्णमुद्राएं देता है....रात में किसी से मिलताजुलता नहीं, ये सारी बातें मन में शंका उत्पन्न करती हैं।' 'संभव है, वह चोर न हो।' चपला ने जिज्ञासा की। __ 'तब कोई भय नहीं है। योगी यदि वास्तव में ही चमत्कारी होगा तो आप जैसी नारी की बात पर अवश्य ही ध्यान देगा और चोर पकड़ने का मार्ग सुझायेगा।' जयसेन ने कहा। ३६८ वीर विक्रमादित्य
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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