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'ओह! मैं मात्र दो घटिका में तैयार हो जाऊंगी।' 'आपके पास काले रंग की चादर है ?' 'हां, क्यों?'
'हमें दो चादरें साथ में रखनी होंगी। नगरी के बाहर कालभैरव मंदिर की ओर जाते समय हमें काली चादर ओढ़नी होगी।'
'तो मुझे भी पुरुष-वेश धारण करना होगा?'
'नहीं, देवी! आप स्त्री-वेश में ही चलें। योगी कितना ही महान क्यों न हो, उसको विचलित करने की शक्ति नारी के अतिरिक्त और किसी में नहीं होती।
और आप तो त्रिभुवनमोहिनी रूप हैं। सोलह शृंगार कर आप तैयार हो जाएं। यदि वह योगी वास्तव में ही चोर होगा तो आपके रूप से दग्ध होकर झुक जाएगा
और वह आपकी प्रार्थना को कभी अस्वीकार नहीं करेगा।' देवकुमार ने सहज स्वरों में कहा।
दो क्षण तक मौनभाव से चपला युवराज को निहारती रही। मन-ही-मन सोचा-मुझे भुवनमोहिनी मानने वाला यह राजकुमार क्या मेरे रूप-लावण्य में मुग्ध हो चुका है ? उम्र की असमानता के कारण तो नहीं हिचक रहा है? उसने मधुर स्वरों में कहा- 'कुमारश्री! आपकी उम्र अल्प होने पर भी.....'
'अनुभव की अल्पता है। मैंने जो कुछ सुना है, वह आपसे कहा है। मेरी बात यदि उचित न हो तो....' बीच में ही जयसेन ने कहा।
जयसेन अपना वाक्य पूरा करे, उससे पहले ही चपलसेना बोल पड़ी, 'नहीं, प्रिय ! आपकी बात सच है....स्त्री जो चाहे वह कर सकती है-इसी भावना के आधार पर मैंने चोर को पकड़ने का बीड़ा उठाया है।'
देवकुमार बोला- 'बातों-ही-बातों में विलम्ब हो जाएगा।' हंसती-हंसती चपलसेना वस्त्र-कक्ष की ओर चली गई। देवकुमार वहीं बैठा रहा।
६८. निरर्थक खोज रात्रि का दूसरा प्रहर पूरा हो, उससे पूर्व ही तेजस्वी अश्वों पर आरूढ़ होकर चपलसेना और देवकुमार नगरी के बाहर निकल गए।
चपलसेना आज वास्तव में ही भुवनमोहिनी लग रही थी। रात्रि का समय होने के कारण उसके पचरंगी वस्त्रों के विविध वर्ण अस्पष्ट लग रहे थे, फिर भी उसके मूल्यवान् और तेजस्वी अलंकार गगनमंडल की तारिकाओं की भांति चमक रहे थे। ३७० वीर विक्रमादित्य