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परिचारिका तेजस्वी युवक के आश्चर्य को देखकर बोली-'कुमारश्री ! यही देवी चपलसेना का कक्ष है। देवी सामने बैठी है।'
चपला का संकेत पाकर परिचारिका खंड से बाहर चली गई।
देवकुमार बोला- 'देवी! मैं आपको पहचान ही नहीं सका। निश्चित ही मुझे आपसे यह कला सीखनी पड़ेगी।'
'युवराजश्री ! केवल यही कला नहीं, मैं आपको सभी कलाएं सिखाऊंगी, यह बताने के लिए ही मैंने अभी आपको बुलाया है। आप यहां बैठें।'
जयसेन रूपी देवकुमार आसन पर बैठ गया।
चपलसेना बोली- 'युवराजश्री ! चोर का अता-पता लग जाने के पश्चात् मैं आपको कामशास्त्र तथा अन्यान्य कलाओं में निपुण बना दूंगी। तब तक आप मेरे अतिथि बनकर यहीं रहें।'
'देवी! अभी आप इस वेश में.....?' 'युवराजश्री! मैं नगर-भ्रमण के लिए जा रही हूं। मुझे मेरा कार्य करना है।'
'यदि मैं भी आपके साथ नगर-भ्रमण करने चलूं तो आपकी रक्षा का कार्य भी होगा और मेरा समय भी बीतेगा।' जयसेन ने कहा।
'यह तो बहुत उत्तम कार्य होगा, किन्तु आपको प्रवास का श्रम....'
'यदि चढ़ते यौवन में ही कोई थक जाता है तो फिर यौवन के उल्लास का मूल्य ही क्या रह जाता है ? यदि आपको आपत्ति न हो तो....'
'आप जल्दी तैयार हो जाएं....मुझे बहुत आनन्द आएगा।' प्रसन्न स्वरों में चपलसेना बोली।
थोड़े ही क्षणों में दोनों अश्वों पर आरूढ़ होकर नगर-भ्रमण के लिए निकल पड़े। जयसेन ने अपना धनुष और बाणों का तूणीर साथ में ले लिया।
रात्रि का तीसरा प्रहर चल रहा था....नगर शांति की गोद में सो रहा था....सारे बाजार शून्यता का अनुभव कर रहे थे। यदा-कदा पहरेदार और गुप्तचर इधर-उधर आ-जा रहे थे।
चपला और जयसेन बातें करते-करते घूम रहे थे....बीच-बीच में कोई पहरेदार उन्हें ललकारता, तब पूर्व-निर्धारित संकेत के अनुसार चपला अपना बायां हाथ ऊपर उठाकर दो बार हिला देती।
रात्रि का तीसरा प्रहर पूरा हो रहा था....जौहरी बाजार से चपला और जयसेन गुजर रहे थे। उस समय नगररक्षक सिंह अपने तेजस्वी घोड़े पर बैठकर आ रहा था। चपलसेना ने पूछा- 'क्यों नगररक्षकजी! आज कोई संदेहास्पद व्यक्ति मिला?'
३६४ वीर विक्रमादित्य