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________________ 'हां, संदेहास्पद तीन व्यक्तियों को पकड़ा है।' 'अच्छा, कहां पकड़े गए ?' 'एक व्यक्ति पानागार के पास से.....दूसरा महाजनवाड़ी में और तीसरा जौहरी बाजार में....' 'वे एकदम अपरिचित हैं?' 'हां देवी!' 'उनकी उम्र......?' 'सभी लगभग पचीस-तीस वर्ष के हैं।' अभी तक मौन देवकुमार बोला-'महाशय! तीनों व्यक्तियों के पास से कोई शस्त्र भी मिला है?' 'नहीं.....किन्तु मैंने आपको पहचाना नहीं।' सिंह ने देवकुमार की ओर घूरते हुए कहा। चपलसेना हंसते-हंसते बोली-'ये मेरे प्रिय अतिथि हैं और मेरी रक्षा के निमित्त साथ आए हैं।' 'आपका शुभ नाम?' 'जयसेन। कोई दु:खद घटना तो नहीं हुई न?' 'नहीं, अभी तक कुछ नहीं हुआ। किन्तु चोर इतना चालाक है कि कब आता है और कब छिटक जाता है, कुछ भी पता नहीं चलता।' नगररक्षक ने कहा। फिर सामान्य बातचीत कर, परस्पर नमन कर तीनों अपने-अपने मार्ग पर आगे बढ़ गए। चपलसेना को इस आकर्षक युवक का सहवास आनन्ददायी लग रहा था। वह इसके साथ खुलकर बातचीत कर रही थी। प्रात:काल से पूर्व वे दोनों भवन की ओर अग्रसर हुए। चलते-चलते जयसेन बोला- 'देवी! आपको एक प्रबंध कर देना चाहिए।' 'कैसा प्रबन्ध ?' 'अपने धन-भंडार के लिए विशेष सुरक्षा-प्रबन्ध ।' 'किन्तु मेरा धन-भंडार चोर की नजरों में नहीं चढ़ सकता । वह भवन के एक गुप्त भूगृह में है और वहां जाने का मार्ग मैं या मेरे कामदार के सिवाय कोई नहीं जानता।' "फिर भी हमें सारे भय-स्थानों पर विचार कर लेना चाहिए...आपकी शक्ति बेजोड़ है। संभव है चोर आठ दिन तक छिपा रहे और फिर कभी हाथ साफ कर जाए।' जयसेन ने गंभीर होकर कहा। वीर विक्रमादित्य ३६५
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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