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चपलसेना मुस्करा दी। जयसेन दासी के साथ अपने निर्धारित कक्ष में चला गया।
चपलसेना इस सुंदर युवक को एकटक देखती रही। यह सुन्दर युवक और कोई नहीं, स्वयं देवकुमार ही था।
६७. मायाजाल चपलसेना ने चोर को पकड़ने के लिए चारों ओर जाल बिछा दिया था। चतुर गुप्तचर विविध वेशों में नगरी में घूमने लगे। किन्तु जिस चोर को पकड़ने के लिए चपलसेना ने बीड़ा उठाया था, वह देवकुमार जयसेन के नाम से उसी के भवन में आ पहुंचा और पहली ही दृष्टि में मानवी के हृदय को परखने वाली चपला मात खा गई।
अनेक बार मान्यता का बंधन मनुष्य को भ्रम में डाल देता है। आज तक अवंती के चालाक चोर को किसी ने नहीं देखा था, किन्तु सभी लोगों का यह अनुमान था कि वह तीस-बत्तीस वर्ष का होना चाहिए। यह बात चपला ने भी मान ली थी। और इसी मान्यता के आधार पर सोलह वर्षीय जयसेन का दिल वह परख नहीं सकी।
जयसेन का सारा व्यवहार सहज और सरल था, इसलिए चपलसेना के मन में कभी संदेह हुआ ही नहीं। उसने जयसेन को अपने हृदय में बिठा लिया था।
देवकुमार ने मन-ही-मन निर्णय कर लिया कि चार दिनों तक शांत रहना है और इन चार दिनों में चपलसेना के धन-भंडार की सारी जानकारी कर लेनी है और अंतिम दिन इसे भी बोधपाठ पढ़ा देना है।
इन विचारों में खोया हुआ देवकुमार पलंग पर करवटें बदल रहा था। उस समय एक परिचारिका ने अंदर आकर कहा-'युवराजश्री! देवी आपको याद कर रही हैं।'
_ 'मैं तैयार हूं।' कहकर देवकुमार पलंग से नीचे उतरा और पैरों में मोजे पहन-कर परिचारिका के पीछे-पीछे चल पड़ा।
रात्रि का दूसरा प्रहर पूरा हो रहा था। चपलसेना पुरुष का वेश धारण कर एक आसन पर बैठी थी। अभी वह नगर-भ्रमण के लिए जाने वाली थी। उसका अश्व भी तैयार खड़ा था।
देवकुमार ने देवी के खंड में प्रवेश किया। उसने पुरुष-वेश-धारिणी चपलसेना को पहचान लिया था, फिर भी आश्चर्य का अभिनय करते हुए परिचारिका की ओर देखकर बोला-'अरे! तू मुझे किसके खंड में ले आयी? देवीश्री किस खंड में हैं?'
वीर विक्रमादित्य ३६३