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'आपका अभी-अभी आना ही हुआ है। आप नहीं जानते कि उस चोर ने क्या-क्या गजब ढाया है। वह तुच्छ नहीं, किन्तु सबको तुच्छ समझने वाला महान् चालाक चोर है।'
'आप जो कह रही हैं, वह सच है। किन्तु अन्त में वह है तो एक चोर ही, दूसरों के घर में चोरी करने वाला । मनुष्य भूल किए बिना नहीं रहता।'
'आप यहां कितने दिन ठहरेंगे?' चपला ने पूछा।
'एकाध-मास रहने का विचार है। और यदि कोई क्षत्रियोचित कार्य मिल गया तो सदा-सदा के लिए यहीं रह जाऊंगा।' कुमार ने कहा।
'आप क्षत्रियोचित कौन-सा कार्य कर सकेंगे?'
'शस्त्रविद्या से मेरा रक्तगत सम्बन्ध है। इसके अतिरिक्त दूसरा कार्य नहीं हो सकता....परन्तु आप सहयोग करें तो...' कहते-कहते जयसेन रुक गए।
"क्यों? कहते-कहते कैसे रुक गए?'
'कुछ नहीं। इस नगरी में कुछेक दिन घूम-फिरकर फिर आपको बताऊंगा।' कुमार ने कहा।
'आप मेरे यहां अतिथि बने हैं, तो मैं आपसे एक प्रश्न पूछ लूं?' 'हां, अवश्य पूछो।'
'मेरे यहां आने वाला अतिथि कामशास्त्र का अभ्यास करने के लिए आता है। आपको.....'
'देवी ! मैं इस प्रयोजन से यहां नहीं आया हूं और इस वय में मैं इस शास्त्र के योग्य भी नहीं हूं। सौतेली मां के कारण गृहत्याग करना पड़ा है। मुझे भाग्य पर विश्वास है। मैं प्रयत्न करूंगा। यदि आपके यहां रहने में आपत्ति हो तो आप मुझे दूसरा आश्रय-स्थान बता दें, मैं वहां रह जाऊंगा।' जयसेन ने कहा।
जयसेन के नयनों की पवित्रता और वाणी की मिठास से चपलसेना अत्यन्त आकृष्ट हो चुकी थी। वह बोली- 'कुमारश्री! आप यही रहें और मेरे विशिष्ट अतिथि के रूप में रहें', कहकर चपलसेना ने अपनी परिचारिका को बुलाकर कहा'कुमारश्री ! मेरे विशिष्ट अतिथि हैं। इनकी सेवा में दो परिचारिकाओं की व्यवस्था करना और स्नान-भोजन आदि की पूरी देखरेख रखना।'
'जी' कहकर परिचारिका चली गई।
जयसेन आसन से उठते हुए बोला- 'देवी ! मैं धन्य हुआ। मैं इस नगरी से सर्वथा अपरिचित हूं, फिर भी धनुर्विद्या में निपुण हूं। मैं यदि आपके कार्य में कुछ सहयोगी बन सका तो अपने आपको सार्थक मानूंगा । आप नि:संकोच होकर मुझे आज्ञा दें।'
३६२ वीर विक्रमादित्य