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________________ 'मैं सच कह रहा हूं, मित्र ! तुम आज से मुक्त हो । किन्तु मित्रता के कारण कभी-कभी यहां आना भूल मत जाना ।' ‘महाराज! मित्रता के कारण मैं अवश्य आऊंगा। आपने मुझे मुक्त कर मेरे पर महान् उपकार किया है, क्योंकि व्यंतर देव वचनबद्ध होने के पश्चात् बहुत चिन्तित हो जाते हैं', कहकर वैताल ने विक्रम को छाती से लगा लिया। विक्रम ने प्रसन्न हृदय से वैताल को विदा किया और उसी क्षण वैताल अदृश्य हो गया । महाराज अपने खण्ड से बाहर आकर उपासनागृह में जाने लगे, इतने में ही एक सेवक ने उनके हाथ में बांस की वह नलिका देते हुए कहा - 'कृपानाथ ! एक ग्रामीण ने यह संदेश आपको दिया है और उसने यह आग्रह किया है कि यह आपके हाथ में ही पहुंचे ।' ६४. चोर सर्वहर वीर विक्रम ने नलिका से ताड़पत्र निकाला और भरपूर प्रकाश में उसे पढ़ा। उनके वदन की रेखाएं बदलने लगीं। पत्र की चेतावनी को पढ़कर विक्रम को बहुत रोष आया । पत्र की भाषा सुन्दर थी, इसलिए विक्रम ने सोचा कि लिखने वाला शिक्षित होना चाहिए । वीर विक्रम अपनी बैठक में गए और नगररक्षक सिंहदत्त और महाप्रतिहार अजय को बुला भेजा । कुछ ही समय में दोनों वहां उपस्थित हो गए। विक्रम ने कहा- ‘अपनी इस नगरी में कोई सर्वहर नाम का चोर आया है।' 'नहीं, कृपानाथ ! ऐसा कोई संदेहास्पद व्यक्ति दिखाई नहीं दिया, किन्तु....।' 'क्या ?' 'हरसिद्ध माता की आराधना करने के लिए एक किशोर आया है, उसका नाम सर्वहर या सर्वेश्वर जैसा है।' 'तुमने देखा है उसे ?’ 'नहीं, कृपानाथ! मैं पुजारी से मिला था और उससे ही सारी जानकारी प्राप्त की थी । ' वीर विक्रम दो क्षण तक मौन रहे, फिर बोले- 'इस ताड़पत्र को पढ़ लो ।' सिंहदत्त ने ताड़पत्र पढ़कर कहा - 'कृपानाथ ! ऐसा प्रतीत होता है कि किसी ने आपसे परिहास किया है, अथवा पागलपन किया है। इस पत्र में जो धमकी दी है, वह भी मिथ्या लगती है ।' ३४८ वीर विक्रमादित्य
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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