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'राजराजेश्वर महाराजाधिराज विक्रमादित्य के चरणों में बुद्धि चतुर और चालाक चोर सर्वहर के प्रणाम विदित हों। आज मैं आपकी नगरी में आ पहंचा हं। आपपरदुःखभंजक हैं, ऐसा लोग कहते हैं। परन्तु यह सुनकर मुझे हंसी आती है। वास्तव में आपने एक अबला स्त्री को बहुत परेशान किया है। यह सुनकर मैंने आपकी नगरी के धनाढ्य व्यक्तियों के घरों में चोरी करने का निर्णय किया है। फिर मैं आपका राज्य हस्तगत करूंगा। मैं अपना यह कार्य कल से प्रारम्भ करूंगा। मैंने यह चेतावनी देने के लिए ही यह संदेश भेजा है। आपको अपनी प्रजा के धनसंरक्षण के लिए जो करना है, वह करें। जो मेरे इस कार्य में बाधक बनेगा, मैं उसे पल-भर में पीस डालूंगा।
आपका दासानुदास
___ 'चोर सर्वहर' इस प्रकार ताड़पत्र तैयार कर उसने बांस की एक नलिका में उसे रखा और संध्या के समय ग्रामीण का वेश बना राजभवन की ओर चल पड़ा।
उस समय महाराजा विक्रमादित्य अग्निवैताल के आकस्मिक आगमन पर विचार करते हुए उसके साथ एक कक्ष में बैठे थे। अग्निवैताल बोला- 'महाराज! एक प्रार्थना करने आया हूं।'
___ मित्र! तुम्हें प्रार्थना करने की आवश्यकता नहीं है। बोलो, मैं तुम्हारे लिए क्या कर सकता हूं?'
'बहुत दिनों से आपने मुझे याद नहीं किया, इसलिए मैं सोच रहा था कि आप निश्चिंत और सुखी हैं।'
'हां मित्र! तुम्हारी कृपा से सब कुछ आनन्द-ही-आनन्द है। बोलो, तुम क्या कहना चाहते हो?'
'कृपानाथ! मैं और मेरी पत्नी दोनों वैताढ्य पर्वत से सुमेरु पर्वत पर तीर्थाटन के लिए जाने वाले हैं। वहां देवता एक उत्सव करेंगे। वह तीन महीनों तक चलेगा, इसलिए आप मुझे तीन महीने तक याद न करें; क्योंकि सुमेरु बहुत दूर है। आप याद करेंगे तो भी मुझे कुछ स्मृति नहीं आएगी।' अग्निवैताल ने विनयपूर्वक कहा।
वीर विक्रम मित्र के कंधे पर हाथ रखकर बोले-'मित्र ! मैं तुम्हारी भावना का सत्कार करता हूं और सदा-सदा के लिए तुम्हें वचनबद्धता से मुक्त करता हूं; क्योंकि अब मुझे ऐसा कोई कार्य नहीं करना है, जिसके लिए तुम्हें परेशान करूं।'
'कृपानाथ....'
वीर विक्रमादित्य ३४७