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विक्रम बोले- 'सिंहदत्त ! फिर भी हमें सावचेत रहना है। तुम नगरसेठ को भी यह बात बता देना। आठ-दस रक्षक नगरसेठ के भवन के आस-पास तैनात कर देना और उन्हें आठों प्रहर सावचेत रहने का निर्देश दे आना । '
'जी', कहकर सिंहदत्त चला गया।
वह सीधा नगरसेठ के भवन पर पहुंचा। वहां के रक्षकों तथा चौकीदारों को जागृत रहने की सूचना दी और राज्य की ओर से दस रक्षक भी वहां तैनात कर दिए।
मध्यरात्रि का समय हुआ । देवकुमार अपने निवासस्थान से बाहर निकला। उसके कंधे पर एक झोली थी। उसमें आवश्यक सामग्री थी । उसने सामान्य मजदूर का वेश धारण किया था और बनावटी मूंछें लगा ली थीं ।
देवकुमार अनेक गलियों और सड़कों को पार करता हुआ नगरसेठ के भवन के पास आ पहुंचा। माताजी द्वारा प्रदत्त कड़ा उसने धारण कर रखा था। वह कड़ा बहुत प्रभावी था । देवकुमार के पास संमूर्च्छन चूर्ण भी था, जिससे वह क्षण-भर में किसी भी व्यक्ति को मूर्च्छित कर सकता था।
देवकुमार नगरसेठ के भवन के उपवन से भवन के मुख्यद्वार पर पहुंच गया। वहां दो-चार रक्षक नंगी तलवार लेकर पहरा दे रहे थे। देवकुमार एक ओर छिप गया। वे रक्षक जब द्वार से कुछ दूर जाकर बैठ गए तब उसने अवसर का लाभ उठाते हुए द्वार में प्रवेश कर डाला। सावधानीपूर्वक मंद-मंद चलता हुआ वह नगरसेठ के धन-भण्डार के द्वार तक पहुंचा। वहां एक हट्टा-कट्टा रक्षक चारपाई पर करवटें बदल रहा था। देवकुमार उसके निकट गया और तत्काल एक चुटकी संमूर्च्छन चूर्ण उस रक्षक के नथुने पर डाल दी। रक्षक ने अर्ध-निद्रावस्था में ही हाथ से नाक रगड़ी और उठने के प्रयत्न में मूर्च्छित होकर उसी चारपाई पर लुढ़क गया ।
अब किसी का भय नहीं था। देवकुमार ने भंडार के द्वार को यंत्रों द्वारा खोला और बाहर पड़े एक दीपक को लेकर भीतर गया। उसने दिव्य रत्नालंकारों से अपना थैला भरा और भण्डार की एक पेटी पर अपना नाम 'सर्वहर' अंकित कर शीघ्रता से बाहर निकल गया ।
बाहर पहरेदार चहलकदमी करते हुए इधर से उधर और उधर से इधर आजा रहे थे। भीतर के रक्षक की अभी तक मूर्च्छा नहीं टूटी थी ।
देवकुमार पहरियों की आंखों से बचता हुआ, जिस मार्ग से आया था, उसी मार्ग से चला गया।
वीर विक्रमादित्य ३४६