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मेरा साथ दोगे तो मैं तुम्हें मालामाल कर दूंगा। तुम बस इतना-सा करना कि मेरे विषय में किसी को कुछ मत बताना।' ___'अच्छा ब्राह्मण देवता ! आप जैसा चाहेंगे, वैसा ही होगा।'
देवकुमार ने सर्वप्रथम सारे साधन जुटाए। विविध प्रकार के वेश तथा अन्यान्य छोटे-बड़े उपकरण जुटाकर तीसरे दिन देवकुमार एक ब्राह्मण के वेश में हरसिद्ध माता के मंदिर में पहुंचा।
उस समय हरसिद्ध माता की आरती हो रही थी। अनेक भक्तगण वहां एकत्रित थे। मुख्य पुजारी उपस्थित था। पांच सौ एक दीपक की आरती भव्य
और मनमोहक लग रही थी। माता का स्वरूप भी अद्भुत था। देवकुमार अपलक नेत्रों से हरसिद्ध माता की ओर देखने लगा।
आरती पूरी हुई। दर्शनार्थ आए हुए सभी नर-नारी माता को नमन कर, जयनाद बोलते हुए विदा हो गए।
देवकुमार ने मुख्य पुजारी का चरण-स्पर्श कर कहा- 'महात्मन् ! मैं कान्यकुब्ज ब्राह्मण हूं। गरीब हूं। मेरे पिता की दृष्टि चली गई है। उन्हें पुन: आंखों का प्रकाश प्राप्त हो, इसलिए मैं माता की आराधना करने आया हूं। आपकी आज्ञा हो तो मैं तीन दिन तक इसी मंदिर में अन्न-जल-रहित रहकर आराधना करना चाहता हूं।'
मुख्य पुजारी ने बालक का सत्कार करते हुए उसे स्वीकृति दे दी।
देवकुमार पुजारी के चरणों में मस्तक नमाकर मंदिर के गर्भगृह में एक कोने में नेत्र बन्द कर, पद्मासन मुद्रा में बैठ गया। अपने हृदय में हरसिद्ध माता की प्रतिमा को अंकित कर उसकी स्मृति में वह तदाकार बन गया।
आज आराधना के तीन दिन बीत गए। तीसरी रात का प्रारम्भ हुआ। देवकुमार एक योगी की तरह पद्मासन में स्थिर बैठा था।
मध्यरात्रि का समय। अचानक मंदिर का गर्भगृह प्रकाश से जगमगा उठा। आत्मा को मंत्रमुग्ध करने वाली मधुर ध्वनि सुनाई देने लगी। देवकुमार के कानों से ये शब्द टकराए – 'वत्स! उठ, खड़ा हो । तेरी आराधना से मैं प्रसन्न हूं। बोल, तू क्या चाहता है?'
देवकुमार ने आंखें खोलीं । प्रकाश से उसकी आंखें चुंधिया गई थीं। वह बोला- 'मां! आप सर्वशक्तिदात्री हो। मैं केवल अवंती के महाराज विक्रमादित्य की आंखें खोलना चाहता हूं और इसलिए आप मुझे ऐसा वरदान दें कि मैं चोरी करूं और पकड़ा न जाऊं।'
'वत्स! चोरी करना चाहता है?'
वीर विक्रमादित्य ३४५