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छठे दिन मां ने पूछा- 'बेटा! तूने क्या करना चाहा है?'
'मां ! मैंने वहां के महाराजा, मंत्रीगण, सेनानायक आदि विशिष्ट अधिकारियों के अहं को खंडित करने का निर्णय किया है।'
'अहं का खंडन!'
'हां, यहां के अधिकारी मानते हैं कि यहां चोरी नहीं होती। यह उन्हें गर्व है। वे कहते हैं, इस कार्य में राज्य की आराध्यदेवी हरसिद्ध माता बहुत सहायता करती है। मैं हरसिद्ध माता के दर्शन भी करके आया हूं। मुझे भी बहुत चामत्कारिक लगती हैं। मेरे कार्य का प्रारंभ हरसिद्ध माता के मंदिर से ही होगा।'
'मैं समझी नहीं।'
'मां! मैं इस प्रकार से चोरियां करूंगा कि सारी नगरी में हाहाकर मच जाएगा। इस कार्य से पूर्व मैं तीन दिनों की तपस्या कर भगवती हरसिद्ध माता को प्रसन्न करूंगा।'
'चोरी!' सुकुमारी ने चौंककर कहा।
'हां, मां! जिस बात का सबको गर्व है, उस बात को मैं निष्फल बना डालूंगा, तभी महाराजा की दृष्टि खींची जाएगी।'
मां अपने एकाकी पुत्र की बात सुनकर अवाक्रह गयी। उसे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था।
देवकुमार बोला- 'मां! मैं यदा-कदा तुमसे मिलने के लिए आ जाया करूंगा। तुम चिन्ता मत करना । मेरे कार्य में शौर्य तो होगा ही, साथ ही साथ बुद्धि का चमत्कार भी होगा।'
मां का आशीर्वाद लेकर देवकुमार अवंती में आ गया। सबसे पहले उसने अपने निवासस्थान की खोज की और उसे नगरी की पूर्व दिशा में गढ़ के पास एक सुन्दर स्थान मिल गया। स्थान बड़ा था। खुली जमीन और अनेक कमरे थे। वहां एक छोटा-सा उद्यान भी था। उसकी देखभाल के लिए एक माली रहता था।
देवकुमार उस माली से मिला और भोजन की व्यवस्था के विषय में पूछताछ की। माली अपनी पत्नी और बारह वर्ष की बेटी के साथ रहता था। देवकुमार ने उसे एक स्वर्णमुद्रा देते हुए कहा- 'मैं परदेशी हूं। तुम प्रतिदिन मेरे भोजन की व्यवस्था करते रहना । मैं तुमको सारा खर्च देता रहूंगा।'
माली गरीब था। स्वर्णमुद्रा को पाकर वह प्रसन्न हो गया। और परदेशी की सारी व्यवस्था अपने ऊपर ओढ़ ली।
देवकुमार ने कहा-'माली दादा ! मैं परदेशी ब्राह्मण हूं। यहां कुछ दिन रहकर अपने देश में लौट जाऊंगा। मैं एक जोखिमभरा कार्य करना चाहता हूं। तुम ३४४ वीर विक्रमादित्य