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किन्तु आज वह एक तेजस्वी पुत्र के साथ अपने महान् स्वामी से मिलने की आशा के साथ प्रवास कर रही थी।
सोलह वर्षों बाद उसका यौवन उभार पा रहा था। सोलह वर्षों के बाद मानो रागमंजरी की स्वर-लहरी उसके रक्त में तूफान खड़ा कर रही थी।
चालीस दिन तक प्रवास करते-करते वे अवंती के निकट विक्रमगढ़ में आ पहुंचे। विक्रमगढ़ अवंती से मात्र तीन कोस दूर था। यह शिप्रा नदी के किनारे पर बसा हुआ एक सुन्दर नगर था। विक्रमगढ़ पहुंचते-पहुंचते संध्या का समय हो गया था, इसलिए वहीं रात्रिवास करने का निश्चय कर, वे नदी-तट पर निर्मित एक पांथशाला में ठहरे।
मां की आज्ञा लेकर देवकुमार गांव में गया। वहां की स्थिति का अवलोकन कर उसने वहीं रहने का निश्चय कर लिया। वह गांव में एक मकान रहने के लिए निश्चित कर मां के पास आकर बोला- 'मां! रहने के लिए उत्तम मकान की व्यवस्था हो गयी है। हम सब वहीं रहेंगे। यहां से अवंती भी दूर नहीं है।'
'मुझे यहां रहने में कोई आपत्ति नहीं है, किन्तुतू अपने पिता को कैसे बोधपाठ देगा, इस विषय की जानकारी क्यों नहीं देता?'
'मां! छोटे मुंह बड़ी बात करना मैं नहीं चाहता। चार-छह दिन तक मैं अवंती में घूमकर सारी परिस्थिति जान लूंगा। राजभवन, राजसभा, मेरे पिताश्री, मंत्री आदि अन्य अधिकारियों को एक बार देख लूंगा। फिर मुझे जो करना है, वह तुमसे बता दूंगा।'
सुकुमारी हंसने लगी। मां की गोद में मस्तक रखकर देवकुमार बोला-'मां! मैं ऐसा उपाय करूंगा कि मेरे पिताश्री तुम्हारा भावभीना स्वागत करेंगे। प्रेम और प्रायश्चित्त के फूलों से तुम्हारा स्वागत करेंगे।'
दूसरे दिन वे सभी विक्रमगढ़ के मकान में चले गए।
तीसरे दिन देवकुमार ब्राह्मणकुमार के छद्मवेश में शिप्रा नदी के मार्ग से अवंती के मुख्य घाट पर उतरा और पैदल ही वहां से नगरी की ओर चल पड़ा। अपराह्न काल तक देवकुमार अवंती में घूमता रहा। वहां की पूरी जानकारी कर वह विक्रमगढ़ की ओर प्रस्थित हुआ।
देवी सुकुमारी पुत्र की प्रतीक्षा में बैठी थी। संध्या के समय देवकुमार आ गया। देवी ने उससे सारी बात जानकर प्रसन्नता व्यक्त की।
पांच दिन तक अवंती नगरी में घूम-घूमकर देवकुमार ने वहां की रक्षाव्यवस्था, कर्मचारियों का स्वभाव, व्यवहार आदि के विषय में बहुत कुछ ज्ञात कर लिया।
वीर विक्रमादित्य ३४३