SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 349
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ देवकुमार विनम्र स्वरों में बोला-'नानाजी ! मेरे पिता महान् हैं। पर उन्होंने मेरी निर्दोष मां की सुध-बुध क्यों नहीं ली? मेरी मां पन्द्रह वर्षों से उनके लिए तरसती रही और वे इसको सर्वथा भूल गए। यह कैसा न्याय ? विस्मृति स्त्रीसुलभ दुर्बलता है। मेरी मां पेटी को भूल गयी। उसे क्या पता कि इस पेटी में उसके सर्वस्व का परिचय है। किन्तु मेरे पिता मेरी मां को क्यों भूल गए? इस दृष्टि से उन्होंने एक अबला को सताने का घोर अपराध किया है। मैं स्वयं अवंती जाऊंगा और पिताश्री को यथार्थबोध कराकर अपना परिचय दूंगा।' 'नहीं, बेटा! वे भारत के श्रेष्ठ और महान् पुरुष हैं। उनके साथ संघर्ष करना उचित नहीं है। मैं भी तेरे साथ जाऊंगी।' सुकुमारी ने कहा। ___'नहीं, मां! पन्द्रह वर्षों बाद इस प्रकार जाना तुम्हारे लिए उचित नहीं है। जो महापुरुष अपनी विवाहित पत्नी और पुत्र को भूल गए हैं, उनकी परीक्षा तो करनी ही होगी। पहले मैं अकेला वहां जाता हूं, फिर तुम सबको आदरपूर्वक ले जाऊंगा।' इस विषय में बहुत विचार-विमर्श चला। अन्त में सुकुमारी, देवकुमार, दो-तीन परिचारिकाएं, चार रक्षक और दो सेवक साथ में जाएं-ऐसा निश्चय हुआ। वहां जाकर किराए पर कोई मकान लेकर रहना और फिर देवकुमार की इच्छानुसार वीर विक्रम के समक्ष प्रकट होना, यह तय हुआ। देवकुमार की भावना थी कि वह अकेला ही जाए, किन्तु नाना-नानी की भावना को वह टाल नहीं सका। पूरी तैयारी कर देवकुमार अपनी मां के साथ अवंती की ओर चल पड़ा। ६३. हरसिद्ध माता की आराधना कहां प्रतिष्ठानपुर और कहां अवंती नगरी ! बहुत लम्बा प्रवास था। कम से कम दो मास लगने की संभावना थी। सुकुमारी का हृदय बांसों उछल रहा था। सोलह वर्ष का स्वप्न साकार होने वाला था। हृदय में पिउमिलन की माधुरी नाच रही थी। विरह की वेदना अब समाप्त होने वाली थी। विरह-व्यथा कम होती जा रही थी और उसके स्थान पर हृदय में प्रियतम से मिलने की तीव्र आकांक्षा उभर रही थी। यौवन के प्रथम चरण में प्रियतम का योग मिला था और कुछ ही समय पश्चात् सोलह वर्षों का विराट् वियोग उसे भोगना पड़ा, मानो कि जीवन की मधुर कल्पनाओं को चकनाचूर करने के लिए कोई विंध्याचल बीच में आ गया हो। ३४२ वीर विक्रमादित्य
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy