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लोग विस्फारित नेत्रों से देखने लगे। पुजारी कांपने लगे। राजा विक्रम और मंत्री मुग्ध हो गए।
और कमलारानी तथा कलारानी की पीठ पर दीखने वाले कोड़े के चिह्न मिट गए और पीड़ा अदृश्य हो गई।
अवधूत की स्तुति चल रही थी और उन्होंने चमालीस श्लोक पूरे कर आंखें खोलीं। सामने महाकाल का शिवलिंग अदृश्य हो गया था और वहां भगवान् पार्श्वनाथ की भव्य मूर्ति शोभित हो रही थी। धरणेन्द्र और पद्मावती के प्रभाव से यह प्रतिमा निकली हो, ऐसा लग रहा था।
सिद्धसेन दिवाकर का जयनाद गूंजने लगा। वीर विक्रम और सभी रानियां आचार्य के चरणों में प्रणत हो गए।
उसी दिन दिवाकर के गुरु आचार्य वृद्धवादिसूरि भी अवंती में पधारे। गुरुशिष्य का मिलन हुआ और गुरुदेव ने पुन: अपने शिष्य को पट्टशिष्य के रूप में स्वीकार किया।
वीर विक्रम ने उसी मंदिर में अवंती पार्श्वनाथ की प्रतिमा प्रतिष्ठापित कर मंदिर को और अधिक सुन्दर और रमणीय बना डाला।
और एक दूसरे पवित्र स्थान में महाकालदेव का भव्य ज्योतिर्लिंग पुन: स्थापित कर एक भव्य मंदिर का निर्माण कराया।
६२. देवकुमार प्रतिष्ठानपुर में आज उत्सव था। राजभवन के विशाल प्रांगण में देवकुमार का सोलहवां जन्मदिवस मनाया जा रहा था। साथ ही साथ आज उसका विद्याध्ययन का काल भी सम्पन्न हो रहा था और आज उसके आचार्य उसकी परीक्षा भी लेने वाले थे।
पन्द्रह वर्ष पूरे कर आज देवकुमार सोलहवें वर्ष में पदार्पण कर रहा था। उसने राजनीति, व्याकरण, तर्क, दर्शन तथा ललित कलाओं में सवा सौ विद्यार्थियों में प्रथम स्थान प्राप्त किया था। अन्त में शस्त्र-संचालन, अश्व-चालन, मल्लयुद्ध आदि की परीक्षाएं शेष थीं। प्रांगण के एक ओर स्त्रीवर्ग बैठा था। उसमें राज-परिवार की, नगर-श्रेष्ठियों की, अधिकारी वर्ग की, राज-संबंधियों की तथा विविध वर्गों की स्त्रियां बैठी थीं। महादेवी विजया और उनकी पुत्री देवी सुकुमारी सबसे आगे बैठी थी। सुकुमारी अपने इकलौते पुत्र देवकुमार को देखकर हर्षित हो रही थी।
वीर विक्रमादित्य ३३७