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दूसरे रथ में बैठी हुई दासी रथ से नीचे उतरी। नायक ने कहा-'देवी मंजरी को कहो कि जलाशय सुन्दर है । प्रात:कर्म की निवृत्ति के लिए यह स्थान उपयुक्त है।'
'जी' कहकर दासी मदनमंजरी के बन्द रथ के पास गई और द्वार खोलकर बोली- 'देवी..... किन्तु रानी के शरीर की ओर देखते ही वह चौंक पड़ी। वह चिल्लाई- 'रानीजी ! रानीजी ! '
रानी मदनमंजरी तो कुछ ही क्षणों पूर्व अनन्त की यात्रा के लिए प्रस्थान कर चुकी थी।
दासी की घबराहट देखकर नायक निकट आकर बोला- 'क्या हुआ, रंभा ?' दासी ने रथ पर चढ़कर रानी की काया को टटोला। रानी की देह निर्जीव और निश्चेष्ट पड़ी थी। वह बोली- 'विजय भाई ! रानीजी मर चुकी हैं।'
‘मृत्यु!”
'हां, आकर देखें तो ।'
नायक ने रानी का हाथ पकड़ा। उसे विश्वास हो गया कि रानी ने आत्महत्या कर ली है। नायक ने सोचा, अब क्या करना चाहिए ? यहां से अवन्ती दस कोस दूर है और सुवर्णगढ़ नब्बे कोस । विजय ने तत्काल निर्णय कर लिया और अपने काफिले को अवन्ती की ओर मोड़ दिया ।
६१. नगर में एक योगी
भोजन से निवृत्त होकर वीर विक्रम अपने आरामगृह में गए तब रात के उजागर के कारण उनकी आंखें नींद से भारी हो रही थीं। दोनों रानियों-कमला और कला भी वहां आ पहुंची। विक्रम ने कहा- 'अभी तुम दोनों अपने-अपने कक्ष में जाओ। मुझे नींद लेनी ही पड़ेगी ।' विक्रम एक पलंग पर सोये । सोते ही उन्हें नींद आ गईं। दोनों रानियां भी अपने - अपने कक्ष में जाकर विश्राम करने लगीं। कुछ ही क्षणों के पश्चात् वे भी भरपूर नींद में चली गयीं। दो घटिका बीती होंगी कि एक परिचारिका दौड़ती हुई महादेवी कमला के खंड की ओर आयी और बन्द कपाट पर दस्तक दी।
कमला कुछ ही क्षण पहले गुलाबी नींद में चली गयी थी । दासी ने दो-तीन बार दस्तक दी । कमला जाग गयी। उसने कहा - 'कौन ?'
‘महादेवी! मैं पूर्णिमा ! एक समाचार... I'
'अन्दर आ जा!' कमला शय्या पर सोयी रही। अभी भी उसकी आंखों से नींद झांक रही थी।
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वीर विक्रमादित्य ३३१