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________________ लिए जो शील प्राणों से भी अधिक प्यारा होता है, उसको मैंने अपने ही पैरों से रौंद डाला है। मैं पीहर कैसे जाऊं? कौन-सी शक्ति बची है मेरे में ? मैंने अपनी सम्पत्ति को स्वयं अपने ही हाथों जलाकर भस्म कर डाला है। मैं भिखारी से भी अधिक हीन-दीन बन चुकी हूं। मैं किस आधार पर जीवित रहूं ? क्या मेरे लिए मृत्यु श्रेयस्कर नहीं है ? मृत्यु ही मेरे लिए सही प्रायश्चित्त होगा। किन्तु मृत्यु कैसे प्राप्त करूं? इतने-इतने रक्षक मेरे साथ चल रहे हैं। मैं मरूं भी तो कैसे ? इन्हीं विचारों में वह अत्यधिक आकुल-व्याकुल हो गई और दोनों हाथों से मस्तक दबाती हुई मृत्यु को प्राप्त करने का मार्ग सोचने लगी। प्रात:काल हो रहा था। पक्षी चहचहा रहे थे। पर मंजरी को कुछ भी ज्ञात नहीं हो रहा था। केवल रथ की गति और मन की गति का ही उसे ज्ञान था। वह उदास थी। विचारों के जंगल में भटक रही थी। अचानक उसके चेहरे पर आशा की उषा खिल उठी। उसका मन आनन्द-विभोर बन गया। वह मनही-मन बोल उठी-ओह! प्रायश्चित्त का अमृत तो मेरे पास ही है। मैं भूल ही गई उसे । एक ही क्षण में मृत्यु की मीठी गोद में सुला देने वाला अमृत मेरे पास में है और मैं व्यर्थ ही उसकी टोह में भटक रही हूं। मदनमंजरी ने अपने दाएं हाथ की अंगुली में पहनी हुई मुद्रिका पर ध्यान दिया। इस मुद्रिका के छोटे-से ढक्कन के नीचे कालकूट विष से सिंचित एक वज्ररत्न था। मदनमंजरी ने उस सोने के ढक्कन को अलग किया। शुक्र के तारे की तरह चमकता हुआ एक हीरा दिखाई दिया। वह दो क्षण उस रत्न की ओर देखती हुई मन-ही-मन बोल उठी-'ओह! जिस दिन मैंने पाप किया था, उसी दिन मुझे विष पीकर जीवन समाप्त कर देना चाहिए था। किन्तु यौवन और कामवासना में अंधी बनी हुई मैं उस अमृत को विस्मृत कर गई। आज मैं अपने पाप का प्रायश्चित्त कर रही हूं। स्वामीनाथ! आपने मुझे प्रायश्चित्त करने का अवसर दिया, यह आपकी महान् उदारता है। आपने मुझे जीवनदान दिया, यह आपकी महानता थी। मेरे घोर पाप का प्रायश्चित्त मृत्यु ही हो सकती है। आपके चरण-कमलों में यदि मैं प्राण-त्याग करती तो अच्छा होता। महाराज! आप मेरे पाप की स्मृति न करें। मुझे क्षमा करें।' ___ इतना मन-ही-मन बोलकर मंजरी ने तीव्र विष वाले हीरे को चूसा और मात्र दो क्षणों में वह लुढ़क गई। उसके प्राण-पखेरू उड़ गए। और उस काफिले के नायक ने एक सुन्दर जलाशय को देखकर प्रात:कार्य सम्पन्न करने के लिए वहीं रुकने का निश्चय किया। दोनों रथ और सभी व्यक्ति उस जलाशय के पास रुक गए। ३३० वीर विक्रमादित्य
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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