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________________ विक्रम ने कहा- 'ठीक है ।' फिर उन्होंने अजय को बुलाकर कहा - 'मंजरी को इसके माता-पिता के पास पहुंचाना है। इसके रथ में दस हजार स्वर्ण मुद्राएं और विविध वस्त्रालंकार रख देना ।' 'जी!' कहकर अजय तत्काल चला गया। मंजरी का पीहर सुवर्णगढ़ अवंती कोस की दूरी पर था। लगभग एक घटिका के पश्चात् मंजरी को लेकर दो रथ सुवर्णगढ़ की ओर चल पड़े। सुवर्णगढ़ एक छोटा राज्य था। मंजरी वहां के राजा की कन्या थी । एक बार वीर विक्रम आखेट के निमित्त उस ओर गए थे। वहां उनका विवाह मदनमंजरी हुआ था। वीर विक्रम मंजरी को विदा कर अपने शयनकक्ष की ओर चले गए। मंजरी को ले जाने वाले तेजस्वी अश्वों वाले रथ और अश्वारोही रक्षक तेज गति से सुवर्णगढ़ की ओर जा रहे थे। सौ कोस का लम्बा प्रवास था और उसमें कमसे-कम तीन दिन लगने की संभावना थी । रथ में उदास बैठी मदनमंजरी के मन में विचारों की उथल-पुथल हो रही थी। उसके मन में जो पाप का आनन्द था, वही पाप आज उसको पींच-पींच कर पीड़ित कर रहा था । उसके यौवन की लालिमा पर कालिमा पुत चुकी थी। उसने सोचा, इस स्थिति में माता-पिता को कैसे मुंह दिखाऊंगी ? मां-बाप यदि पूछेंगे कि अभी कैसे आयी तो मैं क्या उत्तर दूंगी ? मुंह पर जो कालिका पुत गई है, उसे कैसे धो सकूंगी ? क्या मेरा पाप बिना बताए भी मुखरित नहीं हो जाएगा ? मैंने पति और माता-पिता के गौरव को धूल में मिला डाला। अरे, मैं यौवन को पचा नहीं सकी। उसकी उद्दाम तरंगों में बह गई । क्षणिक आनन्द के लिए मैंने अपार आनन्द को खो डाला । अरे, अब मुझे क्या करना चाहिए? मैं किसी भी स्थिति में अपने मातापिता को मुंह नहीं दिखा सकती। तो फिर मैं कहां जाऊं ? मालव देश की सीमा से परे जाकर मुझे करना ही क्या है ? क्या इस रूप और यौवन पर विश्वास रखूं ? नहीं - नहीं, रूप और यौवन कभी विश्वसनीय नहीं होते। ये तो कांच की कूपिकाएं हैं! क्षणिक असावधानी से वे टूट जाती हैं। यदि लोग जान जाएं कि यही विक्रमादित्य की प्रिया मदनमंजरी है तो लोग मुझे कितना दुत्कारेंगे ? मनुष्य को जब मार्ग नहीं मिलता तब वह अत्यधिक अकुलाहट का अनुभव करता है। मदनमंजरी की अकुलाहट रथ की गति से तेज बन गई थी । तीन कोस की दूरी तय करने के पश्चात् मंजरी ने सोचा- मैंने कोई छोटा पाप नहीं किया है। मैंने अपने पातिव्रत धर्म के टुकड़े-टुकड़े कर डाले। नारी के वीर विक्रमादित्य ३२६
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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