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महाराज विक्रम के तेजस्वी मुख को देखकर वह अवाक रह गई। उसका मन भय से आक्रान्त हो गया, पर वह कुछ भी अनुमान नहीं लगा सकी।
विक्रम ने गम्भीर और तेज स्वरों में कहा- 'मंजरी! अभी पांच-चार दिन पहले मध्यरात्रि के समय तेरे वातायन से एक पेटी तेरे शयनकक्ष में आयी थी। वह पेटी आकाशमार्ग से आयी और उस पर नमकहराम मंत्री ज्ञानचन्द्र बैठा था।'
मदनमंजरी की आंखों के सामने अंधकार छाने लगा। यह देखकर वीर विक्रम बोले- 'मंजरी ! धैर्य रखना। जिस पाप का सेवन तूने हर्षपूर्वक किया है, उसको सुनने में व्याकुलता क्यों होनी चाहिए। सुन, तूने उस ज्ञानचन्द्र के साथ खुलकर व्यभिचार का सेवन किया और तूने मेरे द्वारा उपहृत माला उस नीच प्रेमी को दे डाली। उस समय मैं स्वयं उस पेटी के भीतर बैठा था।' मदनमंजरी का गुलाबी चेहरा सफेद हो गया। उसकी आंखें लज्जावश नीचे झुक गईं। उसका हृदय कांप उठा।
वीर विक्रम शांतभाव से बोले- 'वह पेटी आकाशमार्ग से उठी और कलिका की छत पर पहुंची। ज्ञानचन्द्र ने वह माला कलिका को दी और कलिका से मैंने प्राप्त की। मुझे इतना गुस्सा आया था कि मैं तेरे शयनकक्ष में ही तेरा और तेरे प्रेमी का सिर धड़ से अलग कर देता, पर मैंने असाधारण धैर्य रखा। अब मैं तुझे जीवनदान अवश्य देता हूँ, पर तुझे यहां नहीं रहने दूंगा। तू चाहे तो मैं तुझे तेरे माता-पिता के पास भेज दूं अथवा मालव देश की सीमा के उस पार पहुंचा दूं। तेरी जैसी दुष्टा के रक्त से मैं अपनी तलवार को अथवा अपने देश की धरती को कलंकित करना नहीं चाहता।'
मदनमंजरी सुबक-सुबककर रोने लगी और जमीन पर मूर्च्छित होकर गिर पड़ी। कमला रानी ने उसकी मूर्छा को दूर करने का प्रयत्न किया। जब वह कुछ सचेत हई तब वह रोती-रोती बोली- 'कृपानाथ ! मैं पापिनी हूं। मेरे द्वारा भयंकर अपराध हुआ है। मेरा सिरच्छेद कर मुझे इस पापी जीवन से मुक्त कर दें। आप जैसे महान् पति मिलने पर भी मैं....' वह आगे कुछ कह न सकी।
वीर विक्रम बोले- 'मंजरी ! नीचे रथ तैयार है । यदि तू पश्चात्ताप के द्वारा शुद्ध होना चाहती है तो रथिक तुझे तेरे माता-पिता के पास छोड़ देगा और यदि तू चाहे तो तुझे ज्ञानचन्द्र के पास, मालव देश की सीमा से परे, छोड़ आएगा। फिर तू जहां चाहे वहां चली जाना।'
____मंजरी पुन: मूर्च्छित होकर गिर पड़ी। कमलारानी ने उसके मुंह पर शीतल जल छिड़का। कुछ क्षणों पश्चात् उसकी मूर्छा टूटी। कमला ने महाराजा की ओर देखकर कहा- 'स्वामी! आप इसको इसके माता-पिता के पास भेज दें। पश्चात्ताप से पवित्र बन सकेगी।'
३२८ वीर विक्रमादित्य