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________________ 'कृपानाथ! नीतिशास्त्र की दृष्टि से देखा जाए तो ऐसे पुरुष और स्त्री वधयोग्य होते हैं।' ज्ञानचन्द्र ने कहा। दो क्षण सोचकर विक्रम बोले-'तो फिर मैं तुम्हें कौन-सी सजा दूं?' प्रश्न सुनते ही ज्ञानचन्द्र आकुल-व्याकुल हो गया। वीर विक्रम बोले'तुम रात्रि में एक पेटी पर बैठकर आकाश-मार्ग से एक भवन में गए थे। मैं उसी पेटी में बैठा था। इतना ही नहीं, तुमने कलिका को जो माला दी थी, वह माला भी अब मेरे पास है। ज्ञानचन्द्र! तुम्हारा अपराध अक्षम्य है। तुम्हारे शरीर के राईराई जितने टुकड़े कर चीलों को खिला दूं, फिर भी मेरेमन को संतोष नहीं हो पाएगा। बोलो, इस विषय में तुम्हें कुछ कहना है?' ज्ञानचन्द्र स्तब्ध रह गया। काटो तो खुन नहीं। वह कांपने लगा। उसकी बुद्धि बधिर हो चुकी थी। उसके जुड़े हुए दोनों हाथ कांप रहे थे। विक्रम ने महाप्रतिहार की ओर दृष्टिपात करते हुए कहा-'अजय! ऐसे नराधम के रक्त से मैं अवंती की पवित्र भूमि को दूषित करना नहीं चाहता। तुम इस दुष्ट को पवित्र मालव देश की सीमा से बाहर छोड़ने की व्यवस्था कर दो।' फिर ज्ञानचन्द्र की ओर देखकर कहा- 'ज्ञानचन्द्र ! मैं तुम्हें क्षमा तो नहीं कर सकता, परन्तु तुम्हें जीवनदान देता हूं। अब तुम अपने भवन में भी नहीं जा सकोगे। अजय तुम्हें यहां से सीधा कारावास में ले जाएगा और आज मध्यरात्रि में तुम्हारे जैसे पापी को यहां से विदा कर दिया जाएगा। मैं एक चेतावनी देता हूं कि यदि तुम फिर कभी मालव की सीमा में पैर रखने की चेष्टा करोगे तो तुम्हारे टुकड़ेटुकड़े कर दिए जाएंगे।' ज्ञानचन्द्र नीचा मुंह किए मौनभाव से सुनता रहा। सजल नयनों से अपने प्रिय और दयार्द्र राजा के चरणों में लुढ़क गया। कुछ समय पश्चात् अजय ज्ञानचन्द्र को साथ लेकर कारावास की ओर विदा हो गया। उसी रात को चार सशस्त्र सैनिक एक बन्द रथ में मन्त्री ज्ञानचन्द्र को लेकर विदा हो गए। और तीन दिन पश्चात महाराजा विक्रमादित्य ने अपने निवासस्थान के आगे एक बंद रथ तैयार रखा। रथ की रक्षा के लिए दस सैनिक और नायक की व्यवस्था कर रखी थी। रात्रि के प्रथम प्रहर के पश्चात् विक्रम ने मदनमंजरी को अपने आवासस्थल में बुला भेजा। महाराजा का आदेश सुनकर मंजरी को कुछ आश्चर्य हुआ, किन्तु वह तत्काल अपनी दासी को साथ लेकर महाराजा के आवास की ओर चल पड़ी। जब वह वहां पहुंची तब रानी कमला और कलावती भी वीर विक्रम के कक्ष में ही बैठी थीं। वीर विक्रमादित्य ३२७
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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