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________________ राजभवन में अनेक प्रासादथे। राजा के लिए निश्चित मुख्य प्रासाद महीनों से सूना पड़ा था। दास-दासी भी उसमें रहने से घबराते थे, किन्तु आज कोई शक्तिशाली और चमत्कारी अवधूत आएगा और दुष्ट देव को भगा देगा, इस आशा के साथ सभी दास और परिचारिकाएं प्रासाद को शृंगारित करने में तन्मय हो गई थीं। शोभायात्रा जैसे-जैसे आगे बढ़ रही थी, जनता अपने नये राजा को उत्साह से वर्धापित कर रही थी। रथ में बैठे हुए अवधूत विक्रमादित्य को बड़े भाई की स्मृति हो आयी.... ऐसे कविहृदय भाई से मिलना कब होगा? अरे रे, ऐसी चतुर, रूपवती और श्रेष्ठ भाभी के मन में ऐसा विष कब भर गया था? क्या संसार में ऐसी स्त्रियां नहीं हैं कि उन पर विश्वास किया जा सके? नहीं....नहीं....नहीं....यदि स्त्री-जाति विश्वासयोग्य नहीं होती तो उत्तम मानवरत्न उसकी कोख से अवतरित नहीं होते। कर्म के अधीन होकर मनुष्य अनेक बार दुष्ट कर्म कर लेता है। अज्ञानवश भी असत् कार्य हो जाते हैं। वास्तव में आदमी कितना भी महान् क्यों न हो, वह कर्मों के समक्ष तो लाचार ही है! __ शोभायात्रा में अनेक वाद्य बज रहे थे और अवधूत महाराज के रथ पर सैकड़ों पुष्पमालाएं आ रही थीं। कोई पुरनारी ऐसे सुन्दर और नौजवान अवधूत को देखकर दांतों तले अंगुली दबाकर सोच रही थी-इस व्यक्ति ने अपने उगते यौवन में संन्यास क्यों ग्रहण किया होगा? ऐसे सुन्दर युवक को माता-पिता ने संन्यास-ग्रहण करने की आज्ञा कैसे दी होगी? शोभायात्रा में जनता की भीड़ की ओर बढ़ते हुए उत्साह को देखकर विक्रमादित्य आश्चर्यचकित थे। उन्होंने सोचा-राजा के लिए निराश हई जनता के प्राणों में आशा का दीप प्रकट हुआ है। मुझे कल प्रात:काल ही छद्मवेश का त्याग कर प्रजा की आशा को उजागर करना है। ___ शोभायात्रा जब रत्नावट में पहुंची तब पुरनारियों ने नये राजा को अपने मोतियों से वर्धापित किया। प्रजा की इस भावना को देखकर विक्रमादित्य ने सोचा-ओह ! ऐसी प्रेमालु जनता को कभी दु:ख न हो, ऐसी व्यवस्था से मुझे राज्य का संचालन करना चाहिए। यदि मैं सत्ता के नशे में अंधा हो जाऊंगा तो ये मोती मेरे जीवन में धधकते अंगारे बन जाएंगे और मेरा कल्याण कभी नहीं होगा। जो राजपुरुष जनता के हृदय की भावना को नहीं समझ पाते, वे कितने ही ऊंचे हों, राक्षस से भी बदतर होते हैं। २६ वीर विक्रमादित्य
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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