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'हां, कलिका ! महाराजा के अन्त:पुर में जाना सहज कार्य तो नहीं है। प्रिया के तीन-चार संदेश आए, इसलिए मुझे आज तुझे कहलाना पड़ा ।' कहकर मंत्री पेटी पर बैठ गया ।
पेटी के अन्दर बैठे हुए वीर विक्रम ने अपने मंत्री का स्वर पहचान लिया । उन्होंने सोचा, ओह ! जिसे मैं अत्यन्त पवित्र और धर्मिष्ठ मानता था, क्या मंत्री ज्ञानचन्द्र ऐसा है ?
कलिका बोली- 'मंत्रीश्वर ! आपका संदेश प्राप्त होते ही मैंने सारी तैयारी कर रखी थी। यह मंत्रसिद्ध पेटी आपको अपनी प्रिया के पास पहुंचाएगी । किन्तु वहां जाने के पश्चात् इस पेटी को खोलने का प्रयत्न न करें, क्योंकि पेटी • मंत्रसिद्ध है । इसको खोलते ही इसमें से आग निकलेगी और खोलने वाले को भस्म कर देगी ।'
'मैं सावधानी बरतूंगा । आज आकाश में उड़ने के लिए काम आने वाली पवन पादुकाएं नहीं हैं ?' ज्ञानचन्द्र ने पूछा।
'नहीं, उनको मंत्रसिद्ध करना होता है और उसके लिए कृष्णपक्ष की चतुर्दशी तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है। इसलिए आज इस पेटी का प्रयोग करना पड़ रहा है।' कलिका ने कहा ।
मंत्री ज्ञानचन्द्र ने कलिका से पिच्छी ली और पेटी पर बैठकर उसको पेटी के चारों ओर फेरा। क्षणभर में ही पेटी आकाशमार्ग से राजभवन के अन्त: पुर की दिशा में उड़ने लगी ।
विक्रम छिद्रों से देख रहे थे, पर अंधकार के कारण कुछ भी दिखाई नहीं दे
रहा था ।
कुछ ही क्षणों में वह पेटी एक वातायन के रास्ते से एक शयनकक्ष में प्रविष्ट हुई ।
विक्रम ने देखा कि वे एक शयनकक्ष में आ पहुंचे हैं और वहां दीपमालिका का मंद प्रकाश फैला हुआ है।
पेटी शयनकक्ष की एक दीवार के पास जा ठहर गई । विक्रम ने देखा -सामने ही स्वर्ण का एक विशाल पलंग बिछा पड़ा है। पलंग पर अपनी ही पत्नी मदनमंजरी जागती हुई बैठी है। ज्ञानचन्द्र पेटी पर पिच्छी रखकर खड़ा हुआ । तत्काल मदनमंजरी बोली - 'आओ प्रियतम ! तुम्हारा वियोग मेरे से सहा नहीं जाता, यह तो तुम जानते ही हो । चार-चार संदेश भेजे, जब तुमने आने की स्वीकृति दी । प्रियतम ! तुम्हारा चित्त तो प्रसन्न हैन ?'
'चित्त तो सदा तेरे में ही रमा रहता है, किन्तु क्या करूं ? राजकाज ऐसा होता है कि समय मिल ही नहीं पाता। एक बात और है- यहां आने का अर्थ है मौत वीर विक्रमादित्य ३२१