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________________ 'अच्छा, मैं क्रोध को पचा लूंगा।' 'कृपानाथ! आप भाग्यशाली हैं। यह प्रसंग कब प्राप्त होता, कुछ भी नहीं कहा जा सकता था। किन्तु आज मध्याह्न में ही मुझे संदेश प्राप्त हुआ था। आज मध्यरात्रि के समय मैं आपकी जिज्ञासा तृप्त कर सकूगी। आप मेरे साथ ऊपर पधारें।' कहकर कलिका ने कक्ष का द्वार खोला और हाथ में एक झोली लेकर ऊपर चढ़ने लगी। विक्रम भी उसके पीछे-पीछे चले। मध्यरात्रि का समय हो रहा था। कलिका ने आकाश की ओर देखकर कहा- 'महाराज! समय हो चुका है। यहां जो एक पेटी है, उसमें आप मौन होकर बैठ जाएं। इस पेटी में छोटे-छोटे छिद्र हैं। इन छिद्रों से आप अन्दर बैठे-बैठे बाहर का सारा दृश्य देख सकेंगे। आप हिले-डुलें भी नहीं। यह पेटी आकाशमार्ग से उड़ेगी। आप घबराएं नहीं।' विक्रम ने पेटी की ओर देखकर कहा-'देवी! मैं अत्यन्त सावचेत रहंगा।' कलिका ने पेटी का ढक्कन खोला। वीर विक्रम अन्दर बैठ गए। कलिका बोली- 'महाराज! चुपचाप बैठे रहें। यह पेटी आकाशमार्ग से आपको अन्त:पुर में ले जाएगी। वहां जो भी घटित हो उसे देखते रहें। अब मैं नीचे जा रही हूं....कुछ ही समय पश्चात् पुन: आऊंगी।' कहकर कलिका ने पेटी का ढक्कन बन्द कर दिया। वीर विक्रम पेटी में सिकुड़कर बैठ गए। उनके मन में अनेक प्रकार के विचार आने लगे। कलिका अपने कक्ष में चली गई। दो-एक घटिका बीती होगी। विक्रम के मन में उथल-पुथल हो रही थी। उन्होंनेसोचा, मेरेअन्त:पुरमेंस्त्री-चरित्रकैसेहोसकता है? वहांइतना जबरदस्त पहरा! प्रत्येक रानी के लिए अलग-अलग आवासगृह ! प्रत्येक आवासगृह के सशस्त्र रक्षक! बाहर का कोई भी व्यक्ति भीतर प्रवेश नहीं कर सकता....फिर स्त्री-चरित्र कैसा? मेरी प्रत्येक रानी प्रसन्न और मेरे से संतुष्ट है, फिर क्यों वह....कलिका कैसे कहती है कि मेरे अन्त:पुर में भी स्त्री-चरित्र है? इन विचारों में विक्रम उलझ रहे थे। इतने में ही उनके कानों से कलिका के शब्द टकराए- 'पधारो, मंत्रीश्वर! ऊपर पधारो!' दोनों ऊपर आए, तब कलिका बोली-'आप इस पेटी के ऊपर बैठ जाएं और यह मांत्रिक पिच्छी हाथ में रखें। इस पिच्छी को पेटी पर फेरने से आप जहां जाना चाहेंगे, वहां यह पेटी आपको आकाशमार्ग से पहुंचा देगी।' 'कलिका! तुम्हारी कृपा नहीं होती तो.....' 'आप ऐसा न कहें। आपने मुझे प्रचुर धन दिया है। इस बार आपने बहुत विलम्ब किया है। पन्द्रह दिन हो गए हैं।' ३२० वीर विक्रमादित्य
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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