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________________ 'कृपानाथ! मुझे इसका अनुभव नहीं है। किन्तु इस नगरी में कलिका नाम की एक वेश्या रहती है। वह अत्यन्त चतुर और तांत्रिक प्रयोगों को जानने वाली है। उससे ही स्त्री-चरित्र के विषय में जाना जा सकता है।' विक्रम का मन कलिका से मिलने के लिए आतुर था। उनका चित्त औरऔर कार्यों में नहीं लग रहाथा।सोते, उठते, बैठतेवेस्त्री-चरित्र की जिज्ञासा में ही उलझे रहते थे। महारानी कमला और कला ने उनकी मन:स्थिति को जान लिया था। फिर भी वे उनके मन को बहलाने का प्रयत्न कर रही थीं। इसी प्रयत्न में जलविहार की योजना बनी और एक दिन वीर विक्रम इक्यावन रानियों तथा सैकड़ों दासियों के साथ जलक्रीड़ा के लिए निकल पड़े। जलविहार! नवयौवना इक्यावन रानियों के साथ मदभरी मस्ती। वीर विक्रम उस समय कलिका को भूल-से गए। वे अपनी प्रत्येक प्रिया के साथ यौवन की मदमस्ती से क्रीड़ा कर रहे थे। जलविहार सम्पन्न हुआ। पुन: वीर विक्रम का मन कलिका से मिलने के लिए व्याकुल हो उठा। उन्होंने अजय को बुलाकर कहा-'अभी कलिका वेश्या से मिलने जाना है।' 'स्वामी! कलिका वेश्या! रात में!' 'हां, अभी। मुझे उससे कुछ रहस्य जानना है। रथ तैयार कर।' 'जी।' कहकर महाप्रतिहार चला गया। विक्रम तत्काल वेश-परिवर्तन करने लगे। उन्होंने राजमुद्रिका के अतिरिक्त सारे अलंकार उतार डाले। एक सामान्य क्षत्रिय की पोशाक पहन वे तैयार हो गए। वेश-परिवर्तन कर उन्होंने दीपमालिका के प्रकाश में दर्पण में देखा। उन्हें निश्चय हो गया कि इस वेश में कोई भी उन्हें नहीं पहचान पाएगा। सामान्य क्षत्रिय के वेश में विक्रम बाहर निकले। नीचे प्रांगण में महाप्रतिहार अजय ने रथ तैयार रखा था। कुछ ही क्षणों के पश्चात्वीर विक्रम और अजय रथ में बैठकर विदा हो गए। एक स्थान पर रथ को छोड़ वीर विक्रम और अजय पैदल चल पड़े। कुछ दूर चलने के पश्चात् अजय ने कहा- 'कृपानाथ! देवी कलिका का यह भवन है।' 'अच्छा, अब तुम राजभवन में चले जाओ।' 'आप आज्ञा दें तो मैं यहां नीचे ही खड़ा रहूं।' विक्रम ने हंसकर कहा-'नहीं, अजय! भय की कोई बात नहीं है। मैं अपना कार्य पूरा कर राजभवन की ओर निकल पडूंगा।' वीर विक्रमादित्य ३१७
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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