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अजय मस्तक नमाकर विदा हो गया। वीर विक्रम ने कलिका के भवन के बंद द्वार को खटखटाया।
कुछ ही क्षणों के पश्चात् एक वृद्ध महिला ने द्वार खोला और एक अपरिचित व्यक्ति को सामने देखकर पूछा-'किससे मिलना चाहते हो?'
'मैं देवी कलिका से मिलने आया हूं। क्या वे घर में हैं ?' __ 'हां, आप अन्दर पधारें। मैं अभी पूछकर आती हूं। आपका नाम-धाम क्या है?'
'मैं एक परदेशी राजपूत हूं। देवी की प्रशंसा सुनकर उनसे मिलने आया हूं। मेरा नाम विक्रमसिंह है।' विक्रम ने कहा।
विक्रम को वहां बिठा वृद्धा भीतर गई और कुछ ही क्षणों में लौटकर बोली'भाई! तुम मेरे पीछे-पीछे आ जाओ।'
'अच्छा।' कहकर विक्रम उस वृद्धा के पीछे-पीछे चल पड़ा।
तीसरी मंजिल पर पहुंचकर वृद्धा एक कक्ष के पास रुकी और बंद द्वार को खटखटाते हुए बोली- 'देवी!'
'अंदर आने दो।' खंड से एक आवाज आयी। वृद्धा ने द्वार खोलकर कहा- 'अंदर जाओ, भाई!' विक्रम अंदर गए। वृद्धा पुन: द्वार बंद कर चली गई।
विक्रम को देखते ही कलिका पलंग पर से उठते हुए बोली- 'पधारें, अवंतीनाथ! आपने वेश-परिवर्तन तो बहुत उचित ढंग से किया है, किन्तु आपके विशाल और तेजस्वी नयन कभी किसी से छिपे रह सकते हैं?' यह कहकर कलिका ने हाथ से इशारा कर कहा- 'कृपानाथ! आप इस आसन पर बैठे।'
'देवी ! मैं एक परदेशी....'
बीच में ही मधुर वाणी में कलिका बोली-'कृपानाथ! मैं जिस व्यक्ति को एक बार देख लेती हूं, उसे कभी भूल नहीं सकती। आप बिना किसी संकोच के यहां विराजें । मैं आज वास्तव में धन्य हो गई। मेरे आंगन में बानवे लाख प्रजा के स्वामी मालवनाथ पधारे।'
विक्रम ने आसन पर बैठते हुए कहा- 'देवी ! मैंने तो आपको कभी नहीं देखा है।'
'आप तो परदुःखभंजक हैं, महान् हैं। आपको कौन नहीं जानता? मैंने आपको शोभायात्रा में, महाकाल के मंदिर में और राजसभा में देखा है। आज इस दासी को कैसे याद किया?'
३१८ वीर विक्रमादित्य