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५६. स्त्री का चरित्र एक बार वीर विक्रम नगरचर्चा के लिए गए। लौटकर उन्होंने कमलारानी से कहा- 'प्रिये ! आज मैं सोनीवाड़ा में गया था। एक मकान में दो नवयौवना सखियां बातचीत कर रही थीं। एक का नाम सौभाग्यसुन्दरी था और दूसरी का नाम कल्पना था। कुछ ही समय पश्चात् कल्पना का विवाह होने वाला था, इसलिए वह अपनी सखी से मिलने के लिए आयी थी। बात-ही-बात में सौभाग्यसुन्दरी ने कल्पना से कहा- 'विवाह के बाद तू शीघ्र ही ससुराल चली जाएगी, इसलिए फिर हम मिल नहीं सकेंगी। बता, विवाह के पश्चात् जीवन की क्या कल्पना है ?'
कल्पना बोली-'इसमें क्या कल्पना करनी है? मैं पति की आज्ञा का पालन करूंगी। उनके सुख में सुख और दुःख में दु:ख मानूंगी। सास और ससुर को मातापिता तुल्य मानकर उनकी सेवा करूंगी और उनकी प्रियता संपादित करूंगी।'
'पगली कहीं की!' सौभाग्यसुन्दरी ने हंसते हुए कहा-'इस प्रकार का आचरण तो प्रत्येक स्त्री करती ही है। इसमें कोई नयी बात नहीं है। यह तो विवाह की गुलामी कही जा सकती है, इसमें क्या?'
तत्काल कल्पना बोली- 'सौभाग्य ! क्या कर्तव्य का निर्वाह गुलामी है ? अच्छा बता, तू विवाह के पश्चात् क्या करेगी?'
'मेरे विवाह की तो अभी कोई बात ही नहीं है। लेकिन एकाध वर्ष में मुझे विवाह के बंधन में बंधना ही पड़ेगा। उस समय मैं तेरे जैसे गुलामी के विचार नहीं रखूगी।'
'तो बता, क्या करेगी?'
'मेरे पास रूप और यौवन का थाल भरा पड़ा है। मैं अपने पति को दास बनाकर रखूगी और उसकी आंखों में कामण' आंज कर दूसरे छल-छबीले पुरुषों के साथ आनन्द मनाऊंगी।'
कल्पना ने गम्भीर स्वर में कहा-'तू मेरा परिहास तो नहीं कर रही है?'
'नहीं, मैं सत्य कह रही हूं। एक ही पुरुष की पांखों के नीचे फड़फड़ाना क्या जीवन का उल्लास है ? नहीं, नहीं, नहीं। इसमें कोई नवीनता नहीं है। यौवन अमुक काल के पश्चात् अस्त हो ही जाता है, फिर इसकी उपेक्षा क्यों की जाए?'
_ 'सौभाग्यसुन्दरी के शब्दों को सुनकर मैं तत्काल वहां से चला आया।' वीर विक्रम ने कहा।
कमला बोली- 'स्वामी! इसमें आश्चर्य की क्या बात है? अधिकांश स्त्रियां सच्चरित्र ही होती हैं। वे सतीत्व की रक्षा करती हैं। किन्तु कोई एक स्त्री सौभाग्यसुन्दरी जैसे विचारों वाली भी हो सकती है।'
वीर विक्रमादित्य ३१५