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________________ 'पाताललोक में मेरी एक सखी नागकन्या रहती है। उसके विवाहोत्सव में भाग लेने जाना है।' हरिमती ने कहा। _ 'सखी, मैं कैसे आ सकती हूं? हमारे यहां महाराज विक्रमादित्य आए हैं। मैं आज यहां बड़े प्रयत्न से आ सकी हूं। क्या तू वहां अकेली जाएगी?' 'हम तीनों सखियां जाएंगी, किन्तु यदि तू भी साथ चलेगी तो बहुत आनन्द आएगा।' हरिमती ने कहा। 'सखी! मैं लाचार हूं।' 'केवल एक रात की बात है। कल रात्रि के दूसरे प्रहर में नागकन्या का विवाह होगा, फिर हम सब वहां से निकल जाएंगी और प्रात:काल होते-होते यहां पहुंच जाएंगी।' __ 'ओह ! मैं अपनी सास से प्रार्थना करूंगी, पर मुझे आशा नहीं है।' विजया तत्काल बोल उठी-'सास का बहाना मत कर, सखी! तुझे तेरे स्वामी की आज्ञा नहीं मिलेगी, यही बात कह न?' 'इसका पति तो इतना प्रेमी है कि वह इसकी प्रत्येक आज्ञा को सिर चढ़ाता है, किन्तु पति का वियोग इससे सहा नहीं जाता।' गोपा ने कहा। सभी सखियां हंस पड़ी। राजा वीर विक्रम ने महत्त्वपूर्ण बात सुन ली थी, इसलिए वे वहां से चल पड़े। वीर विक्रम ने सोचा, ये सोलह-सोलह वर्ष की सखियां पाताललोक में कैसे जाएंगी और वहां जाकर क्या-क्या करती हैं, यह देखना तो चाहिए। वीर विक्रम ने चलते-चलते मन-ही-मन यह निश्चय कर लिया था कि इन सखियों के पास तीनदंड हैं। उन्हीं के प्रभावसेये पाताललोक में जाएंगी। नागदमनी ने भी दंड की बात कही थी। विक्रम के मन में एक विचार और उठा कि यदि मुझे ये दंड हस्तगत करने हैं तो मुझे तीनों सखियों के पीछे जाना ही होगा। किन्तु यदि वे मेरे सशक्त शरीर को देख.... वीर विक्रम इन्हीं विचारों में इठलाते हुए अपने निवास-स्थान पर पहुंचे। उन्हें अपने महान् मित्र वैताल की स्मृति हो आयी और यह निश्चय किया कि कल वैताल को याद करूंगा और रूप-परिवर्तन भी। रात्रि का दूसरा प्रहर अभी पूर्ण नहीं हुआ था। __अजय प्रतीक्षा में जागता बैठा था। वीर विक्रम ने अदृश्यकरण गुटिका मुंह से निकाली और अजय के समक्ष आकर बोला-'क्यों अजय! अभी तक जागते बैठे हो?' वीर विक्रमादित्य ३०७
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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