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________________ 'हां, स्वामी ! आपकी प्रतीक्षा कर रहा हूं।' 'मुझे कल संध्या के समय ही यहां से बाहर निकल जाना है। यदि रातभर न आऊं तो चिन्ता मत करना। संभव है दो दिन अधिक भी लग जाएं।' 'किन्तु महाराज! जो व्यक्ति आपसे मिलने आएंगे, उन्हें मैं....' 'कोई भी उत्तर दे देना। किन्तु कल तो मुझे जाना ही होगा। परसों सवेरे तक लौट आने का प्रयत्न करूंगा, फिर भी यदि रुक जाऊं तो....' अजय विक्रमादित्य की ओर देखने लगा। वह महाराजा के प्रयोजन से सर्वथा अजान था। ५८. पुरुषार्थ का फल वीर विक्रम के साथ मलयावती की सगाई हो जाने के कारण आज राजभवन में भोजन का भव्य समारोह आयोजित था। महाराजा विक्रमादित्य, मंत्री मतिसार, अजयसेन आदि वहां आए थे और भोजन से निवृत्त होकर पुन: अपने-अपने आवास की ओर चले गए थे। वीर विक्रम ने दो दिन के अल्प प्रवास पर जाने की बात कही थी। मतिसार को आश्चर्य हुआ और उसने पूछा- 'कृपानाथ! आप किस ओर जाना चाहते हैं ?' ‘मंत्रीश्री ! मैं कहीं जाना नहीं चाहता। केवल मिलने के लिए आने वालों से बचने के लिए मैंने यह बहाना किया है।' मतिसार बोला- 'ठीक है, जैसी आपकी इच्छा।' वीर विक्रम अपने शयनकक्ष में गए। उन्हें तैयारी करनी थी। संध्या के पश्चात् तीनों सखियां पाताललोक के लिए प्रस्थान करने वाली थीं। और स्वयं को पाताललोक में जाने के लिए अपने परम मित्र वैताल की सहायता लेना अनिवार्य था। शयनकक्ष का द्वार बन्द कर विक्रम ने अग्निवैताल का स्मरण किया। कुछ ही क्षणों के पश्चात् वैताल उपस्थित हुआ। विक्रम ने उसका हाथ पकड़ते हुए कहा'क्यों मित्र! घरवाली तो कुशल है न?' 'हां, महाराज! किन्तु आज से ही वियाग का गान प्रारम्भ हो गया है।' 'क्यों?' 'वह आज ही अपने माता-पिता के साथ यात्रा पर गई है। मानवलोक और देवलोक के सभी तीर्थों के दर्शन करने की इच्छा से उसके माता-पिता उसे साथ ले गए हैं।' ३०८ वीर विक्रमादित्य
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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