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ले गए। महाराजा विजयसिंह ने उनके निवास की समुचित व्यवस्था की, सेवा में दास-दासियों को रखा। __मतिसार भी अपने महान् राजा की सेवा में आ गए।
वीर विक्रम को नगरचर्चा के लिए यह स्थल बहुत ही अनुकूल लगा, क्योंकि वे मतिसार की पुत्रवधू और उसकी तीनों सखियों का परीक्षण करना चाहते थे।
रात्रि के प्रथम प्रहर के पश्चात् अदृश्यकरण गुटिका मुंह में रखकर वीर विक्रम मतिसार के भवन की ओर चल पड़े। वहां ज्ञात हुआ कि चंपकलता अपनी ननद, सास आदि स्त्री समुदाय के मध्य बैठी है और बातचीत कर रही है। उसकी तीनों सखियों के विषय में कुछ भी ज्ञात नहीं हो सका। वीर विक्रम इधर-उधर घूमकर अपने निवास-स्थान पर आकर सो गए।
प्रात:काल शीघ्र ही जागकर, प्रात:कर्म सम्पन्न कर वीर विक्रम ने मंत्री का वेश धारण किया। यह देखकर महाप्रतिहार अजय ने पूछा-'महाराज! अभी आप.....।'
'अजय! मैं एक प्रयोजनवश बाहर जा रहा हूं। भोजन के समय लौट आऊंगा। मतिसार अथवा राजा विजयसिंह आकर पूछे तो कह देना कि मैं बाहर गया हूं-देरी से लौटूंगा।' यह कहकर वीर विक्रम नगरी में जाने के लिए महल से बाहर निकले।
जब भाग्य का योग होता है तब पुरुषार्थ के पांखें आ जाती हैं। चंपकलता घर से बाहर गई हुई थी। जब वीर विक्रम उसके घर पहुंचे तब कुछ ही क्षणों में एक पालकी में चंपकलता आ पहुंची। पालकी से उतरते ही उसने एक दासी से कहा'तू हरिमती के घर जा और उसे यह बता कि रात में मैं यहीं रुकुंगी।'
दासी हरिमती के घर की ओर रवाना हुई। विक्रम भी उसके पीछे-पीछे चल पड़े। हरिमती का भवन निकट ही था। दासी ने भवन के चौक में खड़े रहकर पुकारा-'हरिमती है?'
'आयी।' यह शब्द सुनते ही दासी वहीं खड़ी रह गई। वीर विक्रम भी एक ओर अदृश्य रूप से खड़े रह गए थे।
हरिमती ने आकर कहा- 'चंपकलता का संदेश लेकर आयी है न?' ___ 'हां, बहन ! वे अभी-अभी ससुराल से आयी हैं और कल पुन: लौट जाएंगी।'
_ 'तो तू चंपकलता से कहना कि हम तीनों सखियां आज रात को उसके घर आएंगी।' दासी विदा हुई।
वीर विक्रमादित्य ३०५