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________________ किन्तु मतिसार और उसके साथी महाराज विक्रमादित्य का जयनाद करते हुए उसी वृक्ष के पास आ पहुंचे। ___मतिसार ने अपने प्रिय महाराजा का कुशल-क्षेम पूछा। वीर विक्रम ने भी सबके स्वास्थ्य की जानकारी ली, फिर कहा- 'मंत्रीजी ! मैंने तो अजय को आपके यहां सदेश देकर भेजा था। क्या आप किसी दूसरे प्रयोजन से इधर आए हैं?' 'नहीं, कृपानाथ! मैं आपका स्वागत करने के लिए ही आया हूं। मेरी पुत्रवधू पक्षियों की भाषा जानती है। उसने आज प्रात:काल शुकवाणी के आधार पर आपके आगमन की सूचना दी थी। उसने यह भी कहा था कि आज आप दूसरे प्रहर की तीन घटिका बीत जाने पर यहां आ जाएंगे। इसीलिए मैं....।' 'ओह! मैं तो बहुत आश्चर्यचकित हूं'-कहकर विक्रम ने अपने मंत्री के कंधों पर हाथ रखकर प्रसन्नता व्यक्त की। ____ मंत्री ने वीर विक्रम को घर पर पधारने की प्रार्थना की। महाराजा ने स्वीकृति दे दी। फिर सभी नगरी की ओर प्रस्थित हुए। मतिसार ने अपने भवन में महाराजा के लिए दो खंड व्यवस्थित किए और स्नान आदि की व्यवस्था की। रात्रि में वीर विक्रम ने मतिसार को पास में बिठाकर कहा- 'मंत्रीश्री ! मैं आपको सम्मानपूर्वक ले जाने आया हूं। आप अपने मूल स्थान पर आ जाएं और वहां अपने भवन में रहें। आपकी सारी संपत्ति मेरे पास मूल रूप में सुरक्षित है।' 'कृपानाथ! आपकी आज्ञा मेरे लिए शिरोधार्य है, परन्तु....' 'आपकी मनोवेदना को मैं जानता हूं। मैंने आपको किसी दोष या अपराध के आधार पर नहीं हटाया था। कुछ अपकीर्ति लेकर भी मुझे वैसा करना पड़ा है। उसका भी एक मुख्य कारण है । मैं आपको अवंती में सारी बात बताऊंगा।' मतिसार कुछ समझे नहीं, फिर भी एक आज्ञाकारी सेवक की तरह बोले'महाराज ! मुझे अत्यधिक संतोष हुआ है, किन्तु आप यहां पधारे हैं तो इतनी उतावली उचित नहीं होगी। आपको यहां कुछ दिन रुकने की कृपा करनी होगी।' __ 'मैं आपकी भावना का आदर करता हूं। आप जानते ही हैं कि मुझे नगरचर्चा के लिए घूमने का शौक है, इसलिए.....।' 'स्वामी! आप निश्चिन्त होकर नगरचर्चा के लिए निकलें, मुझे कोई आपत्ति नहीं है।' आज की रात विक्रम ने वहीं विश्राम किया, क्योंकि तीन दिन तक उन्होंने अश्व पर प्रवास किया था। दूसरे दिन रत्नपुर के राजा को विक्रम के आगमन की सूचना मिली। वे तत्काल मतिसार के भवन में आए और विक्रम तथा अजय को अपने अतिथिगृह में ३०४ वीर विक्रमादित्य
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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