SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 310
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नागदमनी ने महाराजा को आशीर्वाद देकर कहा - 'कृपानाथ ! अब आप रत्नपुर पधारें और मतिसार मंत्री को आदरपूर्वक बुला लाएं।' - 'देवी! तुम्हारे कहने पर मैंने मतिसार मंत्री को कठोर दंड दिया और अब उसे आदरपूर्वक ले आऊं; इसमें शेष तीन दंडों का कौन-सा रहस्य छिपा है ? ' 'कृपानाथ ! एक तो बात यह है कि आप अवंती के नाथ हैं, मेरे दामाद हैं, इसलिए पुत्रतुल्य हैं। आपसे कोई अन्याय हो, यह मैं स्वप्न में भी नहीं चाहती । अब आपकी जिज्ञासा को शांत करने के लिए रहस्य बताती हूं । मतिसार मन्त्री की पुत्रवधू चंपकलता रूपवती, बुद्धिमती और तेजस्विनी है। वह रत्नपुर की है और उसकी तीन सखियां भी वहीं रहती हैं। इन चारों में अपार स्नेह है। जीव एक है, देह भिन्न है। चंपकलता का विवाह मंत्री पुत्र के साथ हो गया और वह यहां आ गई। फिर तीनों सखियों के माता-पिता ने अपनी-अपनी पुत्रियों के संबंध के लिए प्रयत्न प्रारम्भ किया। तीनों सखियों ने यह प्रतिज्ञा कर ली कि वे तीनों एक ही पुरुष के साथ विवाह करेंगी, जिससे कि वे पृथक् न हो सकें। यह बात गुप्त रखी गई और तीनों ने ऐसे पुरुष की खोज प्रारम्भ की। इसीलिए मैंने मतिसार को सपरिवार वहां भेजने के लिए आपसे कहा था, क्योंकि यदि चंपकलता वहां चली जाती है तो वे तीनों सखियां कोई प्रयत्न नहीं करेंगी और चारों साथ रहने का आनन्द भी ले सकेंगी । अब समय की मर्यादा पूर्ण हो चुकी है, इसलिए मैंने आपको वहां जाने के लिए कहा है। अब आप वहां जाएंगे तो सारी बातें ज्ञात हो जाएंगी। चंपकलता की तीन सहेलियों के पास तीन दंड हैं ।' वीर विक्रम ने नागदमनी की ओर प्रसन्नता की दृष्टि से देखा । नागदमनी आशीर्वाद देकर घर चली गई और दूसरे दिन वीर विक्रम महाप्रतिहार को साथ ले रत्नपुर की ओर रवाना हो गए। चौथे दिन वे रत्नपुर की सीमा में पहुंच गए। एक वृक्ष के नीचे ठहरकर वीर विक्रम ने महाप्रतिहार अजयसेन से कहा, 'मैं इस वृक्ष के नीचे विश्राम करता हूं, तुम जाकर मंत्री मतिसार को मेरे आगमन की सूचना दो और उन्हें यहां आने के लिए कहो अथवा उनके भवन का मार्ग जानकर लौट आओ ।' 'जी' कहकर अजयसेन ने अपने अश्व को नगरी की ओर बढ़ाया किन्तु वह कुछ ही दूर गया होगा कि उसने देखा, सामने से मतिसार, उसका पुत्र और अन्य पांच-सात व्यक्ति आ रहे हैं। इसलिए वह तत्काल मुड़ा और विक्रमादित्य के पास आकर बोला, ‘कृपानाथ ! मंत्री मतिसार और कुछेक व्यक्ति इधर ही आ रहे हैं। क्या आपने कोई संदेश भेजा था ?' 'नहीं। संभव है वे किसी दूसरे प्रयोजन से जा रहे हों ।' वीर विक्रमादित्य ३०३
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy