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नगरसेठ ने कहा- 'हमने योगी को सारा वृत्तान्त, अथ से इति तक, बता दिया है। कुछ भी गुप्त नहीं रखा। उसके पास कोई शक्ति होगी, इसीलिए उसने यह स्वीकार किया है।'
महामंत्री ने भी कहा- 'योगी दिखने में बड़ा प्रतापी और तेजस्वी लगता है। वह युवा भी है। तपस्वी मुनिश्री ने भी ऐसा ही उपाय बताया था।'
सभी सहमत हो गए।
उसी रात योगी अवधूत को राजभवन में लाया गया। योगी भवन में प्रवेश न कर पास वाले उपवन में एक चौकी पर आसन बिछाकर बैठ गए। सभी ने राजभवन में चलने के लिए आग्रह किया। योगी ने इतना मात्र कहा- 'राजगद्दी पर बैठने के बाद मैं भवन में प्रवेश करूंगा।'
राजपुरोहित ने मुहूर्त देखा। दो दिन पश्चात् शुभ मुहूर्त था.....पुरोहित ने वह मुहूर्त मंत्रियों को बताया। सभी उसकी तैयारी में लग गए....नगरी में भी यह बात फैल गई थी कि एक अवधूत मालव देश का राजा बनेगा। सबको आश्चर्य हुआ, पर राजा की प्राप्ति पर सर्वत्र आनन्द की लहर दौड़ गयी।
अवधूत राजा का वर्धापन करने के लिए लोग अपने-अपने भवनों को सजाने लगे, बाजार को तोरणद्वारों से मंडित करने लगे। अवन्ती के मुख्य स्थानों पर कलापूर्ण मण्डप, तोरणद्वार तथा दीपकों के प्रकाश के लिए व्यवस्थाएं की गईं।
___ एक रात्रि मात्र शेष रह गई थी। दूसरे दिन प्रात:काल विधिपूर्वक अवधूत का राज्याभिषेक होना था। अवधूत का मन अनेक विचारों से आन्दोलित होने लगा। उसने सोचा-जिस दुष्ट देव की राजसिंहासन पर छाया है और जो उस पर बैठने वाले को मार डालता है, उस दुष्ट देव के साथ मुझे किस प्रकार लड़ना होगा? मैंने मंत्रीश्वर के प्रस्ताव को बिना सोचे-समझे स्वीकार कर लिया है। मैंने एक बलशाली के साथ भिड़ने का दुस्साहस किया है। कल की रात मेरे जीवन की अन्तिम रात हो सकती है...मैंने यह खतरा क्यों लिया? अब कोई दूसरा उपाय नहीं है। मैं क्षत्रिय हूं। कुछ भी क्यों न हो, मुझे अपने वचन का पालन करना ही है। मन को निर्बल बनाना शोभा नहीं देता। मंत्रियों ने अपने राजसिंहासन के विघ्न को समाप्त करने के लिए मुझे चुना है....वे सब मानते हैं कि मेरे पास कोई मंत्रशक्ति है, कोई विशेष साधना है, अथवा भूत-प्रेत को वश में करने की मेरे में लब्धि है। बेचारे मंत्रिगण! इसके बदले मैं अपना वास्तविक परिचय दे देता तो? अब क्या हो? अभी तक मुझे कोई पहचान नहीं सका है। मेरा प्रिय सेवक राजभवन में हो, ऐसा प्रतीत नहीं होता। वह अन्यथा मुझे अवश्य पहचान लेता। अब कोई उपाधि या चिन्ता किए बिना मुझे साहस को बनाए रखना है और अन्तिम क्षण तक मनोबल २४ वीर विक्रमादित्य