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पूरी बात शांत भाव से सुनने के पश्चात् विक्रमादित्य ने मन ही मन सोचा - अरे ! जिस नारी के प्रति महाराज भर्तृहरि को इतना सघन प्रेम था, वह नारी अंत में ऐसी निकली और उसी के कारण मुझे देश- निष्कासन का अभिशाप मिला । अवधूत को विचारमग्न देखकर नगरसेठ ने कहा - 'महात्मन् ! इस परिस्थिति के निवारण का कोई उपाय है ?'
'महाराजा भर्तृहरि को आप क्यों नहीं बुला लेते ?’
'हमने अनेक प्रयत्न किए हैं... किन्तु वे सर्वत्याग के पथ पर ही स्थिर रहना चाहते हैं ।'
'अच्छा तो मैं क्या कर सकता हूं ?'
'आप समर्थ हैं....जो चाहे सो कर सकते हैं.... आप कृपा कर हमारे राज्य का उद्धार करें ।'
विक्रमादित्य विचारमग्न हो गए।
नगरसेठ और महामंत्री का मन कुछ आशावान हुआ ।
कुछ क्षणों बाद विक्रमादित्य बोले- 'गुरु की कृपा से सब ठीक हो जाएगा। मालव देश के राज-सिंहासन पर मुझे बैठना पड़ेगा। जब आपके युवराज आएंगे, तब मैं चला जाऊंगा।'
महामंत्री और नगरसेठ अत्यन्त प्रसन्न हुए। महामंत्री ने अवधूत के दोनों पैर पकड़कर कहा- ‘महात्मन्! आपने हम पर बहुत कृपा की है.... अब आप हमारे साथ राजभवन में चलें ।'
'नहीं, महामंत्रीजी ! मैं धर्मशाला में ही रहूंगा.... आप सब सर्वानुमति से निश्चय कर मुझे लेने आएं, यही मेरी शर्त है। आपके युवराज के आते ही मैं राज्य छोड़कर चला जाऊंगा।' विक्रमादित्य ने कहा ।
महामंत्री बोला- 'आप चिन्ता न करें..... हम सब सहमत हैं।'
'फिर भी आपको प्रयत्न करना चाहिए। सर्वानुमति से मुझे भी प्रसन्नता
होगी।'
ऐसा ही हुआ ।
तीनों वहां से उठे । विक्रमादित्य धर्मशाला में चले गए और नगरसेठ तथा महामंत्री रथ में बैठकर चल पड़े।
महामंत्री ने उसी रात को सभी राजपरिवार के लोगों, मंत्रियों, सेनानायकों, गण्यमान्य नागरिकों को बुलाकर सारी बात बताई ।
एक व्यक्ति ने कहा- 'महामंत्रीजी ! एक योगी को राजगद्दी पर बिठाना कोई आपत्तिजनक बात नहीं है । किन्तु इस शापित सिंहासन पर बैठते ही योगी की बल हो जाएगी ।'
वीर विक्रमादित्य २३