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________________ नगरसेठ ने कहा- 'महात्मन्! आप एकान्त में पधारें। हमें एक बात कहनी है।' 'गगन की छांह में सब एकान्तही एकान्त है। जो कुछ कहना हो, यहीं कहो।' अवधूत ने तेज स्वर में कहा। 'महाराज! मैं इस नगर का नगरसेठ हूं और ये हमारे महामंत्री हैं।' 'आप कोई भी हों, हमें क्या? हम तो मस्तराम हैं-जो कहना हो कहो, नहीं तो चलते बनो।' विक्रमादित्य ने कहा। ___ नगरसेठ को लगा कि अवधूत नौजवान है, पर है बहुत तेजस्वी । यदि हम अधिक हठ करेंगे तो कहीं नाराज न हो जाए। महामंत्री ने कहा- 'महात्मन् ! यहां मुझे बात करने में कोई बाधा नहीं हैकिन्तु बात कुछ ऐसी है कि उसको कहने में समय लग सकता है। यदि आप कृपा करें तो हमारा कल्याण हो जाए।' ___ 'अच्छा। किन्तु हम नगरी में नहीं जाएंगे। एकान्त में चलना हो तो नदी के किनारे चलो।' नगरसेठ और महामंत्री आनन्दित हो गए। तीनों नदी की ओर चल पड़े। ५. अवधूत महाराज शिप्रा नदी का तट! नदी भव्य और भरी-पूरी थी। यह नदी एक दूसरी बड़ी नदी से मिलकर सागर तक पहुंचती थी। अवन्ती मध्य में थी, इसलिए जलपोत द्वारा व्यापार भी होता था। शिप्रा केवल तीर्थ-रूप ही नहीं थी, वह अवन्ती के व्यापार की माता के समान थी। अवधूत वेशधारी विक्रमादित्य, नगरसेठ और महामंत्री बुद्धिसागर के साथ शिप्रा नदी के तट पर आए और एक वृक्ष के नीचे मृगचर्म बिछाकर बैठ गए। महामंत्री और नगरसेठ भी उनके समक्ष रेती में बैठ गए। उस समय शिप्रा के जल-प्रवाह में दो मालवाही नौकाएं मुख्य घाट की ओर बढ़ रही थीं। घाट कुछ दूर था। विक्रमादित्य बोला-'कहो, क्या कहना है?' महामंत्री ने मालव देश के राजसिंहासन पर किसी दुष्ट देव की छाया का पूरा वृत्तान्त सुनाया। २२ वीर विक्रमादित्य .
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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