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________________ ये शब्द सुनकर महामंत्री बुद्धिसागर मुनिश्री के चरणों में लुट गए और बोले'महात्मन् ! वह अवधूत हमें कहां मिलेगा ?' मुनिश्री मौन रह मुस्करा दिए। नगरसेठ ने पुन: वंदना की। महामंत्री से कहा - 'मंत्रीश्वर ! जैन मुनि इससे अधिक नहीं बता सकेंगे, उनकी मर्यादा है। हमें दत्तचित्त होकर धर्माराधना में लग जाना चाहिए - धीरज से सारे कार्य सम्पन्न होंगे ।' दोनों प्रणाम कर बाहर आए। रथ में बैठने के बाद नगरसेठ ने कहा - 'मुनिश्री ने बहुत स्पष्टता से कह डाला है - किसी अवधूत के योग से राजसिंहासन की बाधा दूर होगी।' 'तो फिर हम.... ।' 'महापुरुष के वचनों पर श्रद्धा रखकर हमें कुछ दिनों तक प्रतीक्षा करनी चाहिए।' नगरसेठ ने कहा । दस दिन बीत गए और नगरी में एक नौजवान, तेजस्वी अवधूत ने प्रवेश किया। उसके देदीप्यमान ललाट को देखकर सारे नतमस्तक हो जाते थे । उसने शिप्रा नदी के तट पर स्थित महाकाल के मन्दिर की धर्मशाला में अपना आसन बिछाया। इस तेजस्वी अवधूत के आगमन की बात महामंत्री के कानों तक पहुंची। इन दस दिनों में अनेक संन्यासी और महात्मा अवंती में आए थे, पर अवधूत के आगमन का समाचार पहली बार ही मिला था । महामंत्री तत्काल नगरसेठ के यहां गए और उन्हें साथ ले महाकाल महादेव की धर्मशाला में पहुंचे। अवधूत वेशधारी विक्रमादित्य उस धर्मशाला के मैदान में एक वटवृक्ष के चारों ओर बने चबूतरे पर मृगचर्म पर बैठे थे। उनकी दाढ़ी बहुत लंबी थी। सिर की जटा भी सघन थी । उनकी आंखें तेजस्वी और भव्य कपाल पर भभूति लगी हुई थी । विशाल बाहु, प्रचण्ड छाती, सशक्त और सप्रमाण शरीर - कोई भी व्यक्ति इस नौजवान अवधूत को नमन किए बिना नहीं रह सका । जैसे तारों के स्वल्प प्रकाश में चन्द्र नहीं छिप सकता, वैसे ही विक्रमादित्य लाखों में देदीप्यमान हो रहे थे। महामंत्री और नगरसेठ दोनों इस भव्य और सुन्दर अवधूत के निकट आए । अवधूत ने दोनों को पहचान लिया, पर वे दोनों अपने युवराज को पहचान नहीं सके। दोनों ने प्रणाम किया और वहीं खड़े रह गए। विक्रमादित्य ने एक हाथ उठकार उन्हें आशीर्वाद दिया। वीर विक्रमादित्य २१
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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