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महामंत्री और नगरसेठ जब उपशमागार में पहुंचे तब दिवस का दूसरा प्रहर पूरा नहीं हुआ था । मुनिश्री जयवर्धन की तपस्या का आज सातवां दिन था। उनके दोनों शिष्य गोचरी करने के लिए चले गए थे ।
नगरसेठ और महामंत्री ने मुनिश्री को वंदना की। मुनिश्री ने धर्मलाभ कहकर नगरसेठ से पूछा - 'सेठजी ! क्या धर्माराधना की प्रवृत्ति चल रही है ?'
'आपकी कृपा से मार्ग स्थिर है', कहकर नगरसेठ नीचे जमीन पर बैठ गए। महामंत्री भी वहीं बैठ गए।
नगरसेठ ने महामंत्री का परिचय देकर मुनिश्री से कहा- 'मुनिश्री ! अवंती के महामंत्री एक बात पूछना चाहते हैं ?'
महामंत्री की ओर दृष्टि कर मुनिश्री ने कहा - 'बोलो...... '' महामंत्री ने अवंती के राजसिंहासन की अपदशा और आज तक किये गए प्रयत्नों को संक्षेप में कह सुनाया। मुनिश्री सारा वृत्तान्त शान्त भाव से सुनते रहे । महामंत्री ने कहा- 'मुनीश्वर ! आप उत्कट तपस्वी हैं। आप शक्ति-सम्पन्न हैं। मैं आपके पास इस आशा के साथ आया हूं कि अवंती के राजसिंहासन पर जो क्रूर दृष्टि लगी हुई है, वह दूर हो जाए और राज्य की चिन्ता समाप्त हो, ऐसा कोई उपाय आप बताएं। आप जैसे महापुरुषों के आशीर्वाद से विघ्न का अवश्य निवारण होगा, इसी श्रद्धा से मैं श्रीचरणों में उपस्थित हुआ हूं।
मुनिश्री जयवर्धन कुछ क्षणों तक मौन रहे और फिर बोले- 'मंत्रीश्वर ! आपने धैर्यपूर्वक इतने समय तक राज्य का संचालन किया है। उपद्रव का निमित्त भी होता है और उसकी मर्यादा भी होती है। यह सारा कर्म निमित्तज है। जैन मुनि इन सारे सांसारिक आरम्भ-समारंभों में रस नहीं लेते। उनके महाव्रतों की यह मर्यादा है। '
'मुनिश्री ! मैं यह जानता हूं। नगरसेठ ने मुझे सारा बता दिया था, किन्तु हम सब पुरुषार्थ कर थक गए हैं। यदि इस विघ्न के निवारण का कोई उपाय हस्तगत नहीं हुआ तो यह महाराज्य नष्ट-भ्रष्ट हो जाएगा। कोई शत्रु - राजा इस पर आक्रमण कर सारे राज्य की जनता को कष्ट में डाल देगा। किसी भी प्रकार यह राज्य सुरक्षित रह जाए और जनता सुख-शान्तिपूर्वक जी सके, इसीलिए मैं आपके चरणों में उपस्थित हुआ हूं ।'
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मुनिश्री ने मुस्कराकर कहा - ' भाग्यवान् ! चिन्ता की बात नहीं है धर्माराधना में चित्त को स्थिर करो । प्रत्येक कष्टदशा में धर्म ही त्राण होता है। राजसिंहासन का प्रश्न स्वतः समाहित हो जाएगा। तुम जो कठिनाई अनुभव कर रहे हो, उसका अंत किसी अवधूत के हाथ से होगा ।'
२० वीर विक्रमादित्य