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पंडितजी ने पास में बैठे वल्लभ की ओर देखकर कहा- 'वल्लभ! हम मौत के पंजे से बच निकले हैं, अब हमें किस ओर जाना है?'
विक्रम को सब कुछ ज्ञात था। सर्वरस दंड का ही यह सारा चमत्कार था। वह बोला- 'गुरुदेव! अब कोई भय नहीं रहा। अब हमें नगरी की ओर जाना चाहिए।'
वीर विक्रम ने अपना थैला संभाला। सर्वरस दंड उसी में रखा था। सभी नगरी की ओर आगे बढ़े। उषा का प्रकाश फैल चुका था। नगरी दूर नहीं थी....कुछ दूर चलने पर एक रम्य और सुन्दर उपवन आया। विक्रम ने कहा- 'गुरुदेव! यह रम्य उपवन है। यहां हम सब विश्राम करें। आप सब प्रात:कार्य से निवृत्त हों, तब तक मैं नगरी में जाकर भोजन की सामग्री और कुछ मिष्ठान्न ले आऊं।'
'वल्लभ! हम भय से निकल पड़े थे। साथ में कुछ भी नहीं ले पाए।'
'गुरुदेव! मेरे पास कुछ स्वर्णमुद्राए हैं...आप निश्चिन्त होकर प्रात:कार्य प्रारम्भ करें।' विक्रम ने कहा।
___'गुरुदेव और सभी विद्यार्थी अपने प्राणदाता की ओर आभारभरी दृष्टि से देखने लगे।
विक्रम अपने थैले को साथ ले नगर की ओर चला। आस-पास में देखता हुआ वह आगे बढ़ रहा था, किन्तु उसे कोई मानव दृष्टिगत नहीं हुआ। उसने सोचा, सूर्योदय हो चुका है....क्या नगरी के लोग अभी तक जागृत नहीं हुए हैं ?
वह चलते-चलते नगरी के मुख्य द्वार में प्रविष्ट हुआ। वहां कोई रक्षक भी नहीं था। उसने सोचा, यहां मानव नाम का कोई प्राणी नहीं है क्या?
ऐसी सुन्दर और विशाल नगरी को जनहीन देखकर विक्रम को बहुत आश्चर्य हुआ। उसके मन में प्रश्न उठा-ऐसे कैसे हुआ होगा? किससे पूछा जाए? भोजन की सामग्री कहां से प्राप्त करूं? इस नगरी का नाम क्या है ? नगरी का राजा कौन है? क्या किसी शत्रु राजा ने आक्रमण कर सारी नगरी के लोगों को मार डाला अथवा सभी लोग एक साथ रोगग्रस्त होकर मर गए?
वीर विक्रम आगे चलता जा रहा था। चलते-चलते वह राजभवन तक पहुंच गया। राजभवन के द्वार भी रक्षकों से शून्य थे। वह अन्दर गया इस आशा के साथ कि कोई मनुष्य मिल जाए।
राजभवन का मुख्य द्वार खुला था। वीर विक्रम उस विराट् भवन में प्रविष्ट हुआ और उसने जोर से पुकारा-'अरे! कोई है अन्दर?'
कुछ भी उत्तर नहीं मिला....फिर वह ऊपरी मंजिल पर गया। वहां भी ऐसी ही शांति थी। सभी कक्षों के द्वार खुले थे। २६४ वीर विक्रमादित्य