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________________ विक्रम का कुतूहल बढ़ रहा था। वह पांचवीं मंजिल पर पहुंचा। वहां उसकी दृष्टि एक बंद कक्ष की ओर गई। उस पर बाहर से सांकल लगी हुई थी। विक्रम ने सांकल खोली....कपाटों पर धक्का मारा...कपाट खुल गए। अन्दर का दृश्य देकखर वह चौंका। ५६. वज्रदंड कपाट खुलते ही वीर विक्रम ने देखा, उस कक्ष के एक कोने में बड़ा पलंग पड़ा है। एक षोडशी रूपवती नवयौवना भय से कांपती हुई उस पलंग से नीचे उतर रही है। वह कक्ष विशाल है। पलंग स्वर्णमय और रत्नजटित है। ऐसा क्यों? इस विशाल भवन में यह नवयौवना अकेली कैसे? वीर विक्रम अंदर गया और भयभीत मृगनयनी की ओर देखकर बोला'यह नगरी जनशून्य क्यों है ? इस राजभवन में तुम अकेली क्यों हो? तुमको इस कक्ष में किसने बंदी बना रखा है ?' एक नौजवान प्रियदर्शन पुरुष को देखकर उस षोडशी के वदन पर खचित भय की रेखाएं कुछ फीकी पड़ीं। वह बोली- 'हे नरोत्तम! आप शीघ्र ही यहां से चले जाएं, अन्यथा दुष्ट राक्षस आकर आपको मार डालेगा। हे परदेशी! इस नगरी का नाम श्रीपुर नगर है। इस नगरी के राजा विजयसेन की मैं एकाकी पुत्री चन्द्रावती हूं। मेरे कर्मदोष के कारण एक राक्षस मेरे रूप के प्रति पागल हो गया और उसने मेरे साथ विवाह करने का प्रस्ताव रखा। उसी ने इस नगरी के सभी लोगों को भगा दिया। मेरे माता-पिता भी भाग गए। मौत का भय किसे नहीं सताता? राक्षस के भय से समूची नगरी खाली हो गई। मनुष्य तो क्या, पशु भी नहीं रहे। उस राक्षस ने मुझे इस कक्ष में बंदी बना रखा है। उसने मुझे एक महीने की अवधि दी थी। आज अवधि का अंतिम दिन है। यदि कल उसके साथ मैं पाणिग्रहण नहीं करूंगी तो वह मेरे साथ बलात्कार करेगा या मार डालेगा। आप कृपा कर यहां से भाग जाएं, क्योंकि राक्षस के आने का समय हो गया है।' ___'राजकन्या! तुम निश्चिन्त रहो। डरो मत। कल के लिए तुमने क्या सोचा है?' 'अत्याचारी यादुष्ट व्यक्ति के अधीन होने से मृत्यु श्रेष्ठ है। कल मैं आत्महत्या कर लूंगी।' ‘ऐसी कोई आवश्यकता नहीं है। क्या तुम मुझे एक बात बता सकोगी?' 'पूर्छ।' 'इस राक्षस की मृत्यु का उपाय तुम जानती हो?' वीर विक्रमादित्य २६५
SR No.006163
Book TitleVeer Vikramaditya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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