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तत्काल पंडितजी और तिरसठ विद्यार्थी अपने-अपने आसन से उठे और पंडितजी के पीछे चले गए।
वीर विक्रम ने अपना थैला वहीं रखा था। उसे लेकर वह भी उनके साथ हो गया। सभी नदी की ओर चल पड़े।
उमादे ने आंखें खोलीं। स्थान को रिक्त देखकर वह स्तब्ध रह गई। उसने सोचा, अचानक यह क्या हो गया? उसने अपना दंड लेने के लिए हाथ लंबाया, किन्तु वह चामत्कारिक दंड वहां नहीं था। उसका हृदय व्यथित हुआ। वह आसन से उठे, उससे पूर्व ही चौंसठ योगिनियां और बावन वीर वहां आ पहुंचे।
उमादे को अकेली देखकर क्षेत्रपाल अत्यन्त रुष्ट होकर, आंखें लाल कर उमादे से बोला-'दुष्टा ! तूने हमारा घोर अपमान किया है। अब तू हमारी बलि के लिए तैयार हो जा।'
उमादे हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाए, उससे पूर्व ही क्षेत्रपाल ने अपनी दिव्य शक्ति से उसके शरीर का सारा रक्त चूस लिया और उसी क्षण उमादे प्राणहीन होकर भूमि पर गिर पड़ी।
बावन वीर और चौंसठ योगिनियां अदृश्य हो गईं।
इस ओर वीर विक्रम सभी को साथ लेकर नदी के घाट पर पहुंच गया। सभी भयभीत थे कि उमादे अपनी नीच विद्याओं का प्रयोग कर सबको मौत के घाट उतार देगी।
सभी वहां खड़ी दो नौकाओं में शीघ्रता से बैठे और कुछ ही क्षणों में दोनों नौकाएं तीव्र गति से चलने लगीं।
वीर विक्रम को चामत्कारिक दंड की शक्ति की स्मृति हुई और उसने मन में संकल्प कर तीन बारदंड को नदी केजल में पटका। विक्रम ने यह संकल्प किया था कि सौ कोस की दूरी पर किसी भी नगर के घाट पर पहंचा जाए।
और यह संकल्प साकार हो गया। दोनों वाहनों की गति तूफानी बन गई। नौका-चालक आश्चर्यचकित रह गए....मात्र अर्ध घटिका में दोनों वाहन श्रीपुर नगर के पास वाली सरिता के एक घाट पर पहुंच गए।
वाहन का मुख्य चालक आकर पंडितजी से बोला- 'महाराज! किसी के कोई चोट तो नहीं आयी?'
पंडितजी बोले- 'नहीं। अरे! हम कहां पहुंच गए ?' _ 'महाराज! ये दोनों वाहन किसी तफान में फंस गए थे। हम कहां आ पहुंचे हैं, यह तो हम भी नहीं जानते। इस घाट को देखकर लगता है कि यहां कोई अच्छी नगरी होनी चाहिए। आप जैसे धर्मात्मा वाहन में बैठे थे, इसलिए सब बच गए; अन्यथा आज सबकी मौत थी।'
वीर विक्रमादित्य २६३