________________
के लिए पति की पूरी संपत्ति लेकर अपने प्रेमी के पास जाना चाहती थी। उसके मन में वल्लभ के साथ भोग करने की भी लालसा जागी थी और यदि यह विचार पहले आया होता तो वह चौंसठवे पुरुष की दूसरी व्यवस्था कर लेती, किन्तु अब बहुत विलम्ब हो चुका था..... मन की लालसा को मन में ही दबा देनी पड़े, ऐसी स्थिति थी ।
रात्रि का प्रारंभ हुआ।
रसोई की सारी व्यवस्था पूरी हो गई ।
रात्रि के प्रथम प्रहर की तीन घटिकाएं बीत जाने पर उमादे चौंसठ विद्यार्थियों और अपने पति को मंडप में बिठाकर स्वयं वस्त्र-परिवर्तन करने अपने खंड में चली गई ।
पूर्व निश्चित योजना के अनुसार वीर विक्रम उमादे के आसन के पीछे खंड में बैठ गया था और जब उमादे वस्त्र-परिवर्तन करने गई तब पंडितजी ने सभी शिष्यों से कहा- 'मेरे प्रिय शिष्यों ! तुम सबको मौनभाव से सब कुछ देखना है और जब मैं मंडप का त्याग करूं तब तुम सबको मेरे पीछे-पीछे चल पड़ना है।' सभी विद्यार्थियों ने मस्तक झुकाकर स्वीकृति दी ।
कुछ ही क्षणों के पश्चात् उमादे वस्त्र-परिवर्तन कर आ गई। उसने सभी विद्यार्थियों के भाल पर कुंकुम का तिलक किया और कणेर के फूलों की एक-एक माला पहनाई। सबके सामने एक-एक थाल रखा और उसमें मोदक, शाक, चावल, दाल आदि के कटोरे रखे ।
रात्रि के दूसरे प्रहर की एक घटिका शेष रही, तब उमादे बोली-'स्वामिन्! छात्रगण ! आज मेरे व्रत की पूर्णाहुति है। अब मैं अपने इस धर्म-संघ के साथ आसन पर बैठकर व्रत की पूर्णाहुति की आराधना प्रारंभ करती हूं। जब मैं आराधना पूरी कर इस दंड को ऊंचा उठाऊं, तब आप सब भोजन प्रारंभ करें, तब तक आप सब शांत बैठे रहें ।'
यह सूचना देकर उमादे अपने आसन पर सर्वरस दंड को लेकर बैठ गई। उसने इस चामत्कारिक दंड को नीचे रखा और कणेर की माला पहनी। फिर उसने नेत्र बंद कर चौंसठ योगिनियों और बावन वीरों को आह्वान करने की आराधना प्रारंभ की।
एक ओर धूपदानी से धुआं निकल रहा था, दूसरी ओर दीपक का प्रकाश फैल रहा था ।
वीर विक्रम को यह अवसर उचित लगा। वह तत्काल मंडप में आकर खड़ा हुआ और उमादे के पास पड़े हुए सर्वरस दंड को उठाकर पंडितजी को वहां से चले जाने का संकेत किया ।
२६२ वीर विक्रमादित्य