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'स्वामी ! आपके कार्य को संभालना मेरे बलबूते की बात नहीं है। किन्तु आप जब तक नहीं पधारेंगे, तब तक मैं अन्न-जल भी ग्रहण नहीं कर सकूगी, इस बात को आप याद रखें।' उमादे ने कहा।
वीर विक्रम भी वहां बैठा था। इस स्त्री का यह दंभ देखकर उसका हृदय आश्चर्य से भर गया।
पंडितजी बोले, 'देवी ! तुम स्वामी का वियोग क्षण-भर के लिए भी सहन नहीं कर सकती, यह मैं जानता हूं। ऐसे तो मैं तुम्हें साथ ही ले जाता, किन्तु इतने सारे छात्रों की निगरानी तुम्हारे बिना कौन कर सकेगा?'
'स्वामी ! आप निश्चिन्त होकर पधारें। आपका स्मरण मुझे बल प्रदान करेगा। किन्तु आप अकेले न जाएं, साथ में एक शिष्य को अवश्य ले जाएं।'
'प्रिये! वल्लभ बहुत विद्वान और विनीत है। मैं उसे ही साथ ले जाऊंगा। उसके साथ शास्त्र-चर्चा भी होती रहेगी और मार्ग भी सुगमता से कट जायेगा।'
उमादे ने स्वामी के चरणों में मस्तक नमाया और तिरछी दृष्टि से नौजवान वल्लभ की ओर देख लिया। विक्रम तो एक बालक की भांति शांत बैठा था।
और कुछ ही समय पश्चात् पंडितजी वीर विक्रम को साथ लेकर गांव के लिए चल पड़े।
उमादे का मन निश्चिन्त हुआ। उसने सोचा, आज पूरी रात अपने प्रियतम के साथ बिता पाऊंगी।
रात्रि का पहला प्रहर पूरा हो उससे पूर्व ही पीछे के रास्ते से पंडितजी और विक्रम-दोनों अन्दर पहुंच गए और घास के एक ढेर के पीछे छिप गए।
जब सभी छात्र प्रार्थना कर शयन के लिए अपने-अपने स्थान पर चले गए, तब वीर विक्रम ने कहा, 'गुरुदेव! उस सामने वाले वटवृक्ष के कोटर में आप छिपकर बैठ जाना और किसी को पता न चले, इस प्रकार अपनी पत्नी के पीछे चले जाना।'
उमादे अपने कक्ष में साज-श्रृंगार कर रही थी। पंडितजी लुकते-छिपते वट-वृक्ष के पास पहुंचे और वृक्ष के कोटर में शरीर को संकोच कर बैठ गए। अभी भी उनके मन में यह विश्वास नहीं हो रहा था कि उमादे वैसी है। उनको वल्लभ की बात स्वप्न के समान लगने लगी।
___ किन्तु जब उमादे सोलह शृंगार सजकर सर्वरस दंड को घुमाती-घुमाती वटवृक्ष के पास आयी, तब पंडितजी का विश्वास डोला । कुछ ही क्षणों के पश्चात् उमादे ने उस दंड को तीन बार पृथ्वी पर पटका और स्वयं वृक्ष पर चढ़ गई। वटवृक्ष तत्काल आकाश-मार्ग से उड़ने लगा।
वीर विक्रमादित्य २८५